Wednesday, 25 May 2011

.संशय


जब हमारी कल्पना शक्ति संकल्प शक्ति में परिणत   हो  जाती है, तो मन कल्पवृक्ष बन इच्छित फल देने लगता है और  जब तक मन में संशय रहता है तब तक हम संकल्प नहीं ले पाते........... इन्हीं भावों को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास ...............संशय
जीवन के वृक्ष से लिपटी 
संशय कि बेल
साथ लिए दुविधा के फल
बांध  देती है कितने ही
जीवन के अनमोल सरस पल
और आशंका की जकड़ में  
घुटता रह जाता है ........... व्याकुल मन 
भविष्य की चिंता में
फिसल जाते हैं हाथ से                                      
वर्तमान के कितने ही
मधुर- मधुर, मदिर क्षण 
आशंका के काले घन
छिपा लेते है घनी ओट में 
आशा की क्षीण रुपहली किरण 
संशय को तोड़
आशंका को छोड़
जो तोड़ पाते हैं ये बंधन 
उनके लिए ही फैला है ............उन्मुक्त गगन का............ विस्तृत आँगन

3 comments:

  1. बहुत सुंदर ! संशय युक्त मानव अधर में अटके त्रिशंकु के समान है |

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  2. कल 18/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. वाह ...बहुत बढि़या।

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