विश्वास
जब कभी टूटने लगती है
विश्वास की डोर
और भ्रमित मन
बेलगाम भागने लगता है
उलझती सी जाती है अनगढ़ आस्था
गर्वोंन्मत्त मस्तिष्क
तर्क वितर्क वांचने लगता है
डगमगाने सी लग जाती है
अटूट भक्ति जब
दुस्साहस भर मन प्रश्न उठाता
उस अदृश्य शक्ति पर
तब
उस अज्ञान तिमिर में
कौंध जाते बन ज्ञान रश्मि तुम
और अंतहीन भटकाव को दे जाते
आस्था का सहारा तुम
हौले से सहला अपने अमृत स्पर्श से
श्रद्धा को दे जाते नवजीवन
हर पल हर कण में तुम उपस्थिति को अपनी
तुम आभासित कर जाते हो
विश्वास के टूटते छोर
और कस जाते हो
हाँ ................. मैं हूँ
यह विश्वास दिलाते हो !!!
“वह उपस्थित कण कण में, वह प्रकाश वही तम
ReplyDeleteप्रति क्षण वो संग रहता, तन्हां कभी ना हम”
अच्छी रचना....
आपको दीप पर्व की सपरिवार सादर शुभकामनाएं
धन्यवाद संजय जी ,
ReplyDeleteआपकी मनमोहक रचना और आकर्षक ब्लॉग पाठकों को प्रभावित करने में कामयाब है !
ReplyDeleteदीपावली पर आपको और परिवार को हार्दिक मंगल कामनाएं !
PS: ब्लोगर से वर्ड वेरिफिकेशन हटा दीजिये इससे कमेन्ट देने वालों को परेशानी होती है और कोई उपयोग भी नहीं है !