फेस बुक पर कमेन्ट कर रही थी की कुछ पंक्तियाँ स्वतः ही बनती चली गईं.........
मेरी गलती थी कि गुनाह, जो टूट के चाहा तुझे
मेरी गलती थी कि गुनाह, जो टूट के चाहा तुझे
एक बुत ए संग से, जो खुदा बनाया तुझे
मैंने तो सौंप दी, डोर जीवन की, तेरे हाथों में
तूने कठपुतली की मानिंद, ता उम्र नचाया मुझे
बन के शमा जिसकी चाहत में, जलाया खुद को
वीरान स्याह रातों की , वो दे गया सौगात मुझे
कदम कदम पे चरागा किये, रौशन करने को राहें
उसकी ही फूँक से इबदात खाने के चिराग बुझे
वीरान स्याह रातों की , वो दे गया सौगात मुझे
कदम कदम पे चरागा किये, रौशन करने को राहें
उसकी ही फूँक से इबदात खाने के चिराग बुझे