Tuesday, 17 April 2012

गलती कि गुनाह

फेस बुक पर कमेन्ट कर रही थी की कुछ पंक्तियाँ स्वतः ही बनती चली गईं.........

मेरी गलती थी कि गुनाह, जो टूट के चाहा तुझे 
एक बुत ए संग से, जो खुदा बनाया तुझे 

मैंने तो सौंप दी, डोर जीवन की, तेरे हाथों में 
तूने कठपुतली की मानिंद, ता उम्र नचाया मुझे 

बन के शमा जिसकी चाहत में, जलाया खुद को 
वीरान स्याह रातों की  , वो दे गया सौगात मुझे

कदम कदम पे चरागा किये, रौशन करने को राहें 
उसकी ही फूँक से इबदात खाने के  चिराग बुझे 




Friday, 13 April 2012




फिर कभी पास बैठेंगे, सुनाएँगे हाल ए दिल 
कुछ अपने दिल  की कहेंगे, कुछ तुम्हारी सुनेंगे
कि भरा हुआ तो है दिल में ग़ुबार मगर
मिजाज़ अपना आज कुछ ठीक नहीं है


खुशग़वार मौसम पे रंगीन रुबाइयाँ कहेंगे
खिलते फूलों पे शबनम से तराना लिखेंगे
कि ज़रा बदल लेने तो दो इस मौसम को
मिजाज़ रुत का अभी , कुछ ठीक नहीं है


नज़दीकियों से ज़माने को होता है मुहब्बत का शुबह
बात करते हो पास आके तुम बड़े नाज़ औ अंदाज़ से
कि ग़लत न समझ बैठे कहीं संगदिल ये जहाँ
पाक़नीयत हो तुम मगर, निगाह ए जहाँ ठीक नहीं है


हर किसी से मिलते हो तुम तो, बड़ी फ़राक दिली से
दो पल में बना लेते हो हरेक को हमराज़ अपना
कि इस क़दर अपनाहत का भी ज़माना नहीं ए दोस्त
शातिरों की दुनिया में, भोलापन इतना भी ठीक नहीं है





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