कितनी ही बार
बना कर मिटाई है
तुम्हारी तस्वीर
शायद तुम ऐसे दिखते होगे
या वैसे
सदा भ्रम में ही रही
कितनी ही बार सुनी है
एक जानी-पहचानी
मगर.... अपरिचित आवाज़
और फिर.....
अनगिनत अनुमान
किसकी होगी यह ध्वनि?
क्या तुम्हारी?
क्या तुम्हीं अक्सर, कानों में
धीरे से फुसफुसाकर
एक अनजान आमंत्रण दे
कर जाते विभोर
कितनी ही बार तुम्हारा
अनछुआ स्पर्श
धीरे से सहला
कर जाता स्पंदित
रस सराबोर
वो ध्वनि, वो तस्वीर, वो स्पर्श
क्या तुम्हारा ही है
या मन है थामे
कोरी कल्पना की डोर
क्यों खींच रखे हैं तुमने
भ्रम के परदे चहुँ ओर
कुछ दीखता, कुछ अनदेखा
धुंधलापन
तोड़ क्यों नहीं देते अब ये भ्रमजाल
देकर दरस कर क्यों नहीं देते
उद्धार !!!