Tuesday, 29 May 2012

कितनी बार


कितनी ही बार
बना कर मिटाई है
तुम्हारी तस्वीर
शायद तुम ऐसे दिखते होगे 
या वैसे
सदा भ्रम में ही रही
कितनी ही बार सुनी है 
एक जानी-पहचानी
मगर.... अपरिचित आवाज़
और फिर.....
अनगिनत अनुमान
किसकी होगी यह ध्वनि?
क्या तुम्हारी?
क्या तुम्हीं अक्सर, कानों में 
धीरे से फुसफुसाकर
एक अनजान आमंत्रण दे 
कर जाते विभोर 
कितनी ही बार तुम्हारा 
अनछुआ स्पर्श
धीरे से सहला
कर जाता स्पंदित
रस सराबोर 
वो ध्वनि, वो तस्वीर, वो स्पर्श
क्या तुम्हारा ही है
या मन है थामे
कोरी कल्पना की  डोर
क्यों खींच रखे हैं तुमने
भ्रम के परदे चहुँ ओर
कुछ दीखता, कुछ अनदेखा
धुंधलापन
तोड़ क्यों नहीं देते अब ये भ्रमजाल
देकर दरस कर क्यों नहीं देते
उद्धार !!!

Saturday, 26 May 2012

वो तुम ही तो थे न.....

वो तुम ही तो थे न.....




आज प्रातः ही 
वातायन से भेजी थी तुमने
इक स्वर्णिम किरण
प्रेम- पगे संदेसे के साथ 
हौले से छूकर जो 
जगा गई थी मुझे


उनींदी आखों को मलते हुए  देखा तो 
हाथों में थामे तुम खड़े थे 
अरुणिम पारिजात 
सद्य प्रस्फुटित
किरण-कोंपलों से 
नहा रहा था जग जिसमें
वो अरुणाभ बखेरते 
कर रहे थे मेरी ही प्रतीक्षा 
वो  तुम्हीं तो थे न ......


दूर कहीं मयूर की केकी से
अचानक चौंका दिया था तुमने
तन्द्रा तोड़ देखा तो 
सघन हरितिमा में 
उस  नील-नवल तन में 
वो  तुम्हीं तो थे न ......


प्रकृति के कण कण में
तुम  हो रहे थे भासित 
पक्षियों के कलरव में 
भ्रमर की गुँजार में 
हवा की सरसराहट में
पत्तों की खड़खड़ाहट  में 
सद्य स्नात तृणों की 
भीगी सी पुलक में 
वो मृदु स्नेहिल स्पर्श 
तुम्हारा ही था न ....


अमलतास के पीताभ गुच्छों में 
चलते रहे तुम मेरे साथ-साथ 
फैलाकर अपनी शाख- बाहें 
कर रहे थे मेरा आह्वान 


पर मैं तो मगन थी अपने में ही 
दिनभर के जोड़-घटा,हिसाब-किताब में 
पगली मैं , जान भी न पायी 
अमूल्य पूंजी लुटा बैठी थी 
न देख पायी 
तुम्हारा मुस्कुराना, खिलखिलाना
न ही सुन पाई 
वो तुम्हारा मधुर गुनगुनाना 
हाथों से कैसे फिसल गया 
तुम्हारा वो सलोना रूप 
अब सोचती बारम्बार 
श्याम 
हाँ, वो तुम ही थे ....


चित्र : साभार गूगल







Friday, 25 May 2012

गैरत

चाहत, भरोसा या  प्यार 
करना चाहते गर,जी भर करो .
सपनों में , दिल में या आँखों में बसाओ 
हर खुशी बार के उसकी इक ख्वाहिश पे
उसके हंसीं ख्वाबों को सजाओ 
अपनी धडकनों का,साँसों का ,
हकदार बनाना चाहो तो बनाओ 
पर कोई जज्बातों से खिलवाड़ करे
गैरत पे तुम्हारी वार करे 
इस कदर हक देके
 खुद को न शर्मसार करो 

Tuesday, 22 May 2012

अब छोड़ भी दे, मन

बहुत हुआ
अब छोड़ भी दे, मन  
              
तृष्णा की डोर से बंधी 
आस की मृगी को 
मुक्त कर बंधन से 
 मृगमरीचिका में भटकती 
इस व्याकुल उलझन को 
अब छोड़ भी दे, मन 


कहाँ, कितना और कब तक 
यूँही बेमकसद भटकेगा 
नागफनी सी उगती 
कामनाओं के जंगल में 
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा 
बेबसी के पिंजरे को 
अब खोल भी दे मन .


अनंत विस्तार है 
अथाह गहराई
न कोई ओर, न कोई छोर 
धुंधलके में फिरते सायों सी
पल पल बनता मिटता वजूद 
कब तक दौड़ेगा इन छलावों  के पीछे 
झूठ-मूठ के भ्रमों को 
अब तोड़ भी दे मन  







Friday, 18 May 2012

सिर्फ लिखने के लिए लिखना


सिर्फ लिखने के लिए लिखना 
कितना सार्थक है 
कितना है निरर्थक 
बिन सोचे, बिन जाने 
सिर्फ कुछ कागज रंगना

हर बार का धोखा 
हर बार गलतफहमी
शायद इस बार 
बात दिल की हमने 
लफ्ज़ ब लफ्ज़ 
बिलकुल सही कह दी 

वाकई
क्या उकेर पाते है हम 
अपने ज़ज्बातों को 
पोशीदा ख्यालातों को 

जानते है हम भी कि 
कलम कि नोक तक आते 
हज़ार रंग बदल लेती है ख्वाहिशें 
बात बदलती है तो 
रुख नया इख्तियार 
करती है हैं हसरतें 

फिर भी करते हम दावा
दिल बात जहाँ को 
समझाने का 
शब्दों से खिलवाड़ कर 
शायर, कवि, लेखक 
बन जाने का 

काश!
 इतनी कुव्वत देता खुदा 
इंसान कर पाता जो खुद को बयां 
कम से कम 
एक इंसान दूसरे को तो समझ पाता............





Thursday, 3 May 2012

उसका चले जाना

उसका चले जाना 


न जाने कितनी देर तक रही 
हथेलियों में 
उसके हाथो की हरारत 
जब हथेलियों से 
फिसलती हुई 
उसकी उंगलियां 
मेरी उँगलियों  के पोरों पर 
अपनी हलकी थरथराहट छोड़
न जाने कब  
जुदा हो गईं
शाम कि दहलीज पे 
आस को चौखट थामें
करते रहे इंतज़ार 
एक आहट का 
रात भर उनींदा सा रहा दरवाज़ा
पल - पल पलके झपकती 
बेचैन रहीं खिड़कियाँ 


Wednesday, 2 May 2012

चेतना के बंध

न जाने कितने बंध
लगाती है चेतना

तुम ये करना , वो न करना
तुम ये कहना , वो मत कहना
गर वो कहना तो यूँ कहना
हर बात का मतलब पल पल में
हमें समझाती है चेतना

इस बात पे लोग खफा होंगे
उस बात जाने क्या बोलेंगे
देखो, कहीं कोई हँसी न बनाये
न रुसवा तुम्हें  कोई कर जाये
बात बात पे देखो तो कितना
डरा हमें धमकती है चेतना

दुनिया की कितनी रस्में है
कितने नाते और कसमें हैं
वादों की लक्ष्मण रेखा है
बस इनमें बंधकर ही रहना
हर कदम कदम पे देखो कितने
जाल बिछाती है चेतना

दिल की क्या सुनना कि ये दिल तो ,
 कुछ पागल कुछ आवारा है .
हर बदनाम गली औ कूंचे से
इसका तो आना जाना है
बस जकड़े दिल को रखने को
पहरे लाख बिठाती चेतना





Tuesday, 1 May 2012

ख्वाब बन आंखों में  समाओ, पलकों पे सजो,
हकीकत बन रातों की नींद न उड़ाओ तो अच्छा है .
ख्यालों के इन्द्रधनुष सजाओ, रंगीन परों  पे तिरो,
असलियत की सख्त ज़मीं न दिखाओ तो अच्छा हो .






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