मन के उलझे से भावों का
इक ताना बाना बुन पाती ,
साँसों की सरगम पे कोई
गीत नया सा रच पाती ,
तो मैं भी कविता लिख पाती ......
पर पारे जैसे भाव मेरे , हाथ कहाँ आ पाते हैं .
रेत पे बनती रेखाओं से , बनते - मिटते जाते हैं .
कल्पना के घन कानन में , कस्तूरी मृग सा भटकाते हैं.
प्रतिपल रूप बदल अपना , माया से भरमाते हैं ,
इन्द्रधनुष का छोर पकड़ , जो मैं भी ऊपर चढ पाती
तो मैं भी कविता लिख पाती ........
मरुस्थल में जल के भ्रम से , दूर कहीं दिख जाते हैं .
चंचल चपला से चमक दिखा , घन अवगुण्ठन में छिप जाते हैं ,
इक पल लगता कि हाथ बढ़ा के , मुट्ठी में भर पाऊँगी,
पर कागज तक आते -आते, फिर शब्द कहीं खो जाते हैं
इन आडी तिरछी रेखाओं से , जो चित्र कोई में रच पाती ,
तो मैं भी कविता लिख पाती .........