Saturday, 23 July 2011

जो मैं भी कविता लिख पाती


मन के उलझे से भावों का
इक ताना बाना बुन पाती ,
साँसों की सरगम पे कोई
गीत नया सा रच पाती ,
तो मैं भी कविता लिख पाती ......

पर पारे जैसे भाव मेरे , हाथ कहाँ आ पाते हैं .
रेत पे बनती रेखाओं से , बनते - मिटते जाते हैं .
कल्पना के घन कानन में , कस्तूरी मृग सा भटकाते हैं.
प्रतिपल रूप बदल अपना , माया से  भरमाते हैं ,

इन्द्रधनुष का छोर पकड़ , जो मैं भी ऊपर चढ पाती
तो मैं भी कविता लिख पाती ........

मरुस्थल में जल के  भ्रम से , दूर कहीं दिख जाते हैं .
चंचल चपला से चमक दिखा , घन अवगुण्ठन में छिप जाते हैं ,
इक पल लगता कि हाथ बढ़ा के , मुट्ठी में भर पाऊँगी,
पर कागज तक आते -आते, फिर शब्द कहीं खो जाते हैं 

इन आडी तिरछी रेखाओं से , जो चित्र कोई में रच पाती ,
तो मैं भी कविता लिख पाती ......... 


Monday, 4 July 2011

स्वेच्छाचारी विचार

लहरों की तरह मन में 
सर उठाते विचार
घन बीच तड़ित से
कौंधते बार बार.
सिरा पकड़ने की कोशिश में
हर बार हाथ से
सिकता ज्यों फिसल जाते
 जल में  मीन बन जाते
हाथ न आते विचार

एक  दूसरे  को  काटते 
मचाते घमासान द्वंद्व
मन की कोमल भावनाओं  पर  
करते  जाते कठोर प्रहार


 तोड़ कर नियंत्रण की हर सीमा 
पागल, बेलगाम अश्व से,
बेखौफ पार कर जाते 
हर बंध,   हरेक दीवार.


सोचती मैं कभी तो,
 रख पाऊँगी इन्हें अपने वश में,
मुंह चिढ़ा आगे बढ़ जाते
छोड़ जाते मुझे लाचार .


न कोई आदि है इनका न अंत
न कोई सीमा न बंध
कामनाओ  के  विस्तृत नभ  में
पक्षियों से स्वेच्छाचारी विचार


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