Thursday, 31 March 2016

जीवन का डर

बार-बार चुभ रही है 
आँखों में 
उसकी खाली सीट 
उठ रहे हैं मन में कई सवाल |
क्या हुआ होगा ? 
किस वज़ह से उठाया होगा 
उसने यह कदम?
ऐसा कौन सा डर था जिससे डर कर उसने
जीवन के सबसे बड़े डर
मृत्यु को
किया होगा अंगीकार?
क्या वास्तव में
मौत से भी भयंकर है 
जीवन का डर?
यही बात चुभ रही मन में बार- बार
क्यों नहीं किया हौंसला
अनुत्तीर्ण होने का? 
सिर्फ एक परीक्षा के लिए
क्यों हार गया वह जीवन ?
कोई भी आकांक्षा 
माँ-बाप की अपेक्षा 
बढ़कर तो नहीं थी जीवन से उसके!
क्यों नहीं समझ पाया वह
उनकी आँखों का कोई भी स्वप्न
इस दुस्वप्न पर तो नहीं टूटता था|
अभी तो बस आरम्भ ही था - जीवन रण का
क्यों युद्ध से पहले ही उसने
डाल दिए हथियार
यही सोचता मन बार-बार.....

नहीं बन पाती शिला

नहीं बन पाती शिला
पूरी तरह
कोई अहिल्या कभी
उस पाषाणी आवरण के नीचे
हमेशा छलकता रहता है
मीठे जल का एक सोता
गाहे-बगाहे जिसमें
उग आते हैं कभी
इच्छाओं के कमल।
समझ नहीं पाती
हर झरोखे, हर झिरी को
बड़े यत्न से मूँदने के बाद भी
जाने कहाँ से
प्रवेश कर जाती है 
उम्मीद की किरण 
जो बार-बार खिला देती है 
कामना का कमल 
हाँ! कोई अहिल्या 
पूरी तरह 
नहीं बन पाती शिला
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

अश्वत्थामा

अश्वत्थामा बन गई है वो,
अपने पकते-रिसते घाव को
अंतरात्मा पर ढोती,
मूक पीड़ा को पीती|
शुष्क आँसुओं के कतरों की 
चुभन आँखों में लिए
फिर रही है|
हाँ, अश्वत्थामा बन गई है वो ....

भेद जाती हैं कान
अंतस से उठती आवाजें
अपने ही मन के कुरुक्षेत्र में 
अपना ही रचा महाभारत 
लड़ रही है वो
हाँ, अश्वत्थामा बन गई है वो 
पीड़ा, घुटन, रुदन का 
सदियों तक 
अभिशाप झेलना 
बन चुकी है उसकी नियति 
आखिर क्यों न हो 
परिणाम समान 
जब
पाप भी हुआ था  समान.... 
अपनी मौन, संज्ञाशून्य सहमति को 
बना ब्रह्मास्त्र 
खुद अपने ही गर्भ पर कर प्रहार 
हाँ, बन गई है वो 
अश्वत्थामा........



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