Friday, 27 February 2015

मैं देह , तुम प्राण

मैं देह , तुम प्राण
अनुभव होता है आजकल 
देह का प्राण से विलग होना 
बड़ी ही जटिल है ..  यह प्रक्रिया
आखिर रोम-रोम हम बंधे  हैं साथ 
हर बंध टूटने का अहसास 
तड़पा देता है 
कर देता विह्वल 
हर साँस देह में अटक कर 
कुछ और रुक जाना चाहे है 
थाम लेना चाहती है देह 
प्राणों के संसर्ग को 
कुछ और पल .... कुछ और क्षण 
जैसे तुम्हारे कदमों से बंधे हैं 
मेरी साँसों के धागे 
दूर जाता तुम्हारा हर कदम 
क्षीण कर जाता जीवन की आस 
आखिर .. मैं देह , तुम प्राण !


Thursday, 26 February 2015

आत्म साक्षात्कार


आत्म साक्षात्कार
मुश्किल होता है बड़ा
करना अपना सामना
दूसरों का सामना तो फिर भी
बखूबी कर लेता इंसान
कुछ दिखावटी व्यवहार,
कुछ बनावटी मिठास
वो आत्मीय मुस्कराहट
न जाने कितनी सामग्रियों से सज़ा कर
पेश करते खुद को
दुनिया के दस्तरख्वान पर
एक लज़ीज़ पकवान की तरह
लगाता नुमाइश अपनी
गिनवाता अपनी खूबियाँ
अपने आदर्श, सभ्य, नैतिक  रूप के पीछे
छिपा जाता हर बार
अपना वह आदिम मूल स्वभाव
पर खुद से कहाँ छिपा पाता है खुद को
यह वो आइना  है जहाँ
वह और उसकी आदिम इच्छाएँ
होते हैं रू-ब-रू  ... बे-लिबास
जहाँ खुद के आदर्श, मूल्य, नैतिकता
उसे ढोंगी ठहरा करते हैं अट्टहास
खूबसूरत मुखौटे
नोच फैंकती हैं  उंगलियाँ
तब वह खुद ही आइना और खुद ही अक्स बन जाता
खुद अपनी ही आवाजें
कसती हैं तंज
तब खुद को ही बहला- फुसला कर
किसी तरह चुप करा कर
मन की कब्र के नीम अँधेरे में
कर देते हैं दफ्न
क्योंकि मुश्किल बड़ा है
खुद को देखना,सुनना
और करना आत्म-साक्षात्कार







Monday, 23 February 2015

मैं मौन बाँचती हूँ


तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |
शब्दों की कैद में कब, मैं भाव बांधती हूँ |

शब्दों के दायरे में, भावों को बांधना क्यों?
नाप-तोल करके, ये प्रेम आंकना क्यों ?
तुम प्रेम-प्रेम कहते, मैं मन में झांकती हूँ |
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |

सागर की लहरों पर ज्यों बाँध का बनाना ,
आँधियों  को  जैसे,  हो  रास्ता  बताना ,
भावों पे शब्दों के, कब पाल तानती हूँ ?
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |


तुम आँखों से प्रेम कहना, आँखों से मैं सुनूँगी'
उस मूक प्रेम पल को, रह मूक ही गुनूँगी ,
मोती सा हरेक पल वो, आँचल में टाँकती हूँ|
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ 

शब्दों की स्याही जब, भाव पे जम जाए,
दिन से उजले भावों को, रात-सा बनाए,
दिन उजाला करने को मैं रात माँझती हूँ|
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ 

मौन


तुम शब्दों में
ढूंढते रहे भावनाएँ
मैं मौन बाँचती रही

मौन ही गूढ़
मौन ही शाश्वत
मौन ही तो है सबसे मुखर
चुक जाते हैं शब्द अक्सर
बन जाते हैं पंगु
असमर्थ रह जाते
करने में वहन  भावनाएँ |
तब चारों ओर पसरा यह मौन ही
हो उठता है मुखर
बोलता, चीखता, गाता, गुनगुनाता है|
अपनी अदृश्य कलम से
हर भाव चेहरे पर लिख जाता है |
बस, कुछ पल तो बैठो पास
पढ़ो, इस मौन को मेरे
जान पाओगे भाव
छिपे.... गूढ़ अंतस में कहीं
क्यों चाहते कि कर दूँ व्यक्त
शब्दों में


Sunday, 22 February 2015

दोहे विरह के



सावन भी सूखा लगे, पतझड़ लगे बहार |
सजना सजना के बिना, सखी लगे  बेकार ||

इधर बरसते मेघ तो , उधर बरसते  नैन |
इस जल बुझती प्यास अरु, उस जल जलता चैन |

आकुल हिय की व्याकुलता, दिखा रहे हैं नैन|
प्रियतम नहीं समीप जब, आवे कैसे चैन||

नैनन अश्रु धार ढरै, हिय से उठती भाप|
दिन ढले ही आस ढले, रात चढ़े तन ताप||


Friday, 20 February 2015

तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ.

तुम कहते हो मैं, प्रेम लिखूँ.
 जो जिया नहीं, जो गुना नहीं 
कैसे पल वो साकार लिखूँ.
तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ.

प्रेम की पीड़ा, प्रेम का हर्ष 
सर्वस्व समर्पण का उत्कर्ष 
अनाभूत उस भाव का प्रकर्ष 
बिन भोगे कैसे महसूस करूँ 

 तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ ..

यह वो अमृत जो चखा नहीं 
वो  विषपान  जो किया नहीं 
जब खिला नहीं, जब जला नहीं 
ये अंतर्मन तो क्या भाव धरूँ

तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ

वो प्रेम दीवानी मीरा के 
चिर वियोगिनी राधा के
हीर, शीरीं औ लैला के   
जैसी न  मैं स्वीकार करूँ 


तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ
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