Wednesday, 26 September 2018
Tuesday, 25 September 2018
Friday, 21 September 2018
पौधा क्यों कुम्हलाया
पौधा क्यों कुम्हलाया
सभी अपनी निगाहों में प्रश्नों के बाण लिए अपनी निगाहों से माली को भेद रहे थे
और माली सिमटा हुआ-सा इस सोच में पड़ा था कि आखिर उससे कहाँ गलती हो गई? जैसे-जैसे इन
सबने कहा था बिलकुल वैसे ही तो देखभाल की थी पौधे की .. फिर?? वह शुरू से सब बातों
को क्रमबार सोचने लगा ...
जिसने पौधा रोपा था उससे पौधे की देखभाल करनी आती नहीं थी अतः उसने वह पौधा ,
पौधों की देखभाल करने वाली संस्था को दे दिया| माली को जब वह पौधा मिला तो उसने
पौधे को अपना समझ कर अपनी पूरी काबिलियत से उसकी देखभाल शुरू कर दी क्योंकि वह
जानता था कि पौधे को परवान कैसे चढ़ाया जाता है| एक दिन जब माली ने देखा कि पौधे कि
एक पत्ती पीली पड़ रही है तो उसने उस पत्ते को तोड़ दिया| हेड माली ने माली को पौधे
की पत्ती तोड़ते देख लिया| वह जोर से चिल्लाया, “तुमने किस हक से पौधे की पत्ती उखाड़ी
? तुम्हें पता है कि पौधे का मालिक कितना नाराज़ होगा?” “पर पीली पत्तियों को तोड़ना
ज़रूरी होता है नहीं तो पौधे की बढ़त रुक जाती है” – माली ने तर्क दिया| बात संस्था
प्रमुख के पास पहुंची तो उन्होंने माली को डाँटते हुए कहा – “तुम्हें ज्यादा दिमाग
लगाने की कोई ज़रूरत नहीं है, अब हम बताएँगे कि पौधे की देखभाल कैसे करनी है|”
अब माली पर कड़ी निगाह रखी जाने लगी – “आज तुमने पौधे में कम पानी क्यों डाला,
आज तुमने उसे धूप में क्यों रखा .... खाद थोड़ी ज्यादा डालो ... और हाँ, पौधे कि
पत्ती तोड़ना तो दूर, उसे झूने की भी कोशिश मत करना|” माली पर .. पर कर्ता रह गया
मगर फरमान सुनाने वाले सुना कर चले गए|
अब पौधे का मालिक जब पौधे के निरीक्षण के लिए आया तो देखा कि पौधे की पत्तियाँ
पीली हो रही हैं| आगबबूला होते हुए उसने माली, हेड माली, संस्था प्रमुख सबको एक
पंक्ति में खड़ा करके अल्टीमेटम दे दिया – “मैं तुम्हें पौधे की देखभाल करने के
पैसे दे रहा हूँ और तुमने मेरे पौधे की पत्तियाँ पीली कर दीं,.... तुम्हारा माली
किसी काम का नहीं है, मैं वन-विभाग में तुम्हारी शिकायत करूँगा .... कानूनी
कार्यवाही करूँगा|”
पोधे के मालिक की चीख पर वन विभाग, पौधा संरक्षण संस्थाएँ, पुलिस, कानून सब
डंडा लेकर संस्था के पीछे पड़ गए| संस्था प्रमुख ने हाथ जोड़ घिघियाते हुए कहा – “आप
चिंता न करें. आपके इस पौधे को हरा-भरा करने में हम जी-जान लगा देंगे| इसके लिए हमने
विदेशों से एक्सपर्ट बुलाए हैं, वे हमें सुझाव देंगे कि हमें पौडे की देखभाल कैसे
करनी है|”
भारी-भरकम डिग्रियाँ लिए, आँखों पर विदेशी चश्मा चढ़ाए एक्सपर्ट ने दूर से पौधे
की बारीकी से जाँच की और कहा – “पौधे की
देखभाल में प्यार की कमी है| आप अपने माली से कहिये कि वह प्रतिदिन पौधे को गाना
सुनाए, उससे दिन में चार बार यह कहे कि तुम बहुत बहुत अच्छे हो, तुम बहुत बड़े पेड़
बनोगे .... पौधे को धूप में बिलकुल न निकला जाए और उसमें हर दिन यह विदेशी खाद
डाली जाए|”
“पर यह तरीका यहाँ के मौसम और पर्यावरण के अनुकूल नहीं है .. और इस विदेशी खाद
से पौधे की जड़ें ही गल जाएँगी .. जड़ें गल गईं तो फिर कैसे पनपेगा ” – माली
बुदबुदाया| “चुप !!! तुम्हें क्या पता पौधे की देखभाल कैसे की जाती है| जैसा कहा
जा रहा है वैसा करो” – चारों और से समवेत स्वर में आदेश आया| संस्था प्रमुख ने कहा
– “वह पौधे की हर घंटे की प्रोग्रेस को लिखकर और ग्राफ बनाकर ऑफिस में सबमिट करे|
हेड माली रोज़ तुम्हारी रिपोर्ट पौधे से लेगा कि कहीं तुम उसे कोई कष्ट तो नहीं
पहुँचा रहे|”
अब माली प्रतिदिन उस पौधे को ए.सी. कमरे में गाना सुनाता है, दिन में चार बार
उससे कहता है कि वह बहुत अच्छा है, ढेर सारा पानी और विदेशी खाद डालता है और हर
घंटे उसकी लम्बाई चौड़ाई को नापकर रिपोर्ट तैयार करता है| परन्तु पौधा है कि दिन ब
दिन कुम्हलाता ही जा रहा है|
क्या आप में से कोई बता सकता है कि पौधा क्यों कुम्हला रहा है??
शालिनी रस्तौगी
Thursday, 20 September 2018
Wednesday, 20 June 2018
‘दृष्टि’ महिला लघुकथाकार अंक
आदरणीय श्री अशोक जैन एवं प्रसिद्ध लघुकथाकार कांता राय जी के कुशल संपादन से सजी, लघुकथा को समर्पित अर्द्धवार्षिकी पत्रिका ‘दृष्टि’ का महिला लघुकथाकार अंक मेरे हाथों में है| इसके लिए मंजू जैन मैम का हृदय से आभार| ‘दृष्टि’ पत्रिका कि सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह न केवल लघुकथाकारों को एक अच्छा मंच उपलब्ध करवाती है वरन् लघुकथा की बारीकियों को बड़ी कुशलता से समझाती है| सम्पादकीय पढ़ते ही आपको इस पत्रिका का गुरुतर उद्देश्य समझ आ जाता है जहाँ लघुकथा के अस्तित्व को बचाकर इस विधा को नया जीवन व नया कलेवर देने के प्रयास स्पष्टतः समझ आते हैं| अंक के प्रारंभ में भी संपादक श्री अशोक जैन जी द्वारा लघुकथाकारों को अच्छा पाठक बनने का सुझाव इस दिशा में उठाया गया एक मजबूत कदम है|
महिला लघुकथाकार विशेषांक का अतिथि संपादन भी बेहतरीन लघुकथाकार, संपादिका एवं ‘लघुकथा के परिंदे’ नामक समूह की संचालिका कांता राय जी के दक्ष हाथों में सौंपना इस अंक के लिये सोने पर सुहागा साबित हुआ| कांता राय जी ने जहाँ एक ओर महिलाओं को केवल शौकिया लेखन से ऊपर उठकर एक जिम्मेदाराना प्रयास के लिए प्रेरित किया वहीं नारी मन में छिपी अकुलाहट व सृजनशीलता के निकास का पथ भी प्रदर्शित किया|
‘दृष्टि का सम्पादकीय एवं डॉ. अशोक भाटिया द्वारा लिखित आलेख ‘हिंदी में लेखिकाओं का लघुकथा संसार’ पढना स्वयं में एक शोध के सामान है जहाँ लघुकथा संसार में छिपी संवेदनाओं और संभावनाओं को बेहद खूबसूरती के साथ उकेरा गया है| लघुकथा कि प्रथम शोधार्थी डॉ. शकुंतला किरण जी का साक्षात्कार लघुकथा की आत्मा को शब्दों में ढालकर इतनी सहजता से प्रस्तुत करता है कि कोई संदेह शेष ही नहीं रह जाता| विशिष्ट लघुकथाकार के रूप में चित्रा मुद्गल जी कि पांच रचनाएँ बहुत प्रभावी हैं| सातवें व आठवें दशक की पांच लघुकथाकारों की रचनाएँ लघुकथा के क्रमिक विकास का ब्यौरा देती हैं|
१०० महिला लघुकथाकारों की रचनाओं से सजा ‘दृष्टि’ का यह विशेषांक नारी मन के सभी कोनलों का स्पर्श करता है | नारी मन की अकुलाहट, आत्मनिर्भरता, स्वतंत्रता की चाहत, ममता, प्रेम व स्नेह जैसी संवेदनाओं से जुड़ी रचनाएँ हैं तो सामाजिक सरोकरों से जुड़ी, भेदभाव की परिपाटी को सिरे से ख़ारिज करने का साहस रखने वाली पितृसत्तात्मक समाज के विरोध में मुखर होती रचनाएँ भी सम्मिलित हैं| जीवन के अनेक रंगों के पुष्पों को स्वयं में समेटे दृष्टि का यह अंक संग्रहणीय है| सभी लेखिकाओं, एवं संपादकों को हृदयतल से साधुवाद|
Friday, 8 June 2018
आवाजें
आवाजें
मन में उठती
आवाजें
कानों में फुसफुसाती
गुनगुनातीं,
चीखतीं चिल्लातीं,
मेरे होंठों पे
मौन बनके
ठहर जाती हैं
मन में उठती
आवाजें
कानों में फुसफुसाती
गुनगुनातीं,
चीखतीं चिल्लातीं,
मेरे होंठों पे
मौन बनके
ठहर जाती हैं
Saturday, 12 May 2018
Friday, 11 May 2018
अपूर्णता में सम्पूर्णता
अपूर्णता ही सत्य
अपूर्णता ही शाश्वत ।
मिथ्या है ...
सम्पूर्णता का अभिमान
सम्पूर्णता की चाह
मृग मरीचिका ।
अपूर्णता जगाती
जिजीविषा ।
अपूर्णता की स्वीकारोक्ति ही
सबसे बड़ी
सम्पूर्णता ...
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
अपूर्णता ही शाश्वत ।
मिथ्या है ...
सम्पूर्णता का अभिमान
सम्पूर्णता की चाह
मृग मरीचिका ।
अपूर्णता जगाती
जिजीविषा ।
अपूर्णता की स्वीकारोक्ति ही
सबसे बड़ी
सम्पूर्णता ...
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
प्राथमिकता
पुरुष ने नारी से कहा
सुनो,तुम मेरी प्राथमिकता हो...
नारी ने भी बड़े यत्न से
प्राथमिकता की इस प्रवंचना सहेज लिया
और अपनी सभी प्राथमिकताओं को
निचला दर्ज़ा देकर
पुरुष को अपनी प्राथमिकता बना लिया।
फिर पुरुष की प्राथमिकताएं बदलने लगीं
और स्त्री ....
दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे
पायदानों से होती हुई
अंतिम पायदान पर खड़ी
बस देखती रही
अपनी प्राथमिकताओं में
सबसे ऊपर विराजमान
उस पुरुष को ....
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
सुनो,तुम मेरी प्राथमिकता हो...
नारी ने भी बड़े यत्न से
प्राथमिकता की इस प्रवंचना सहेज लिया
और अपनी सभी प्राथमिकताओं को
निचला दर्ज़ा देकर
पुरुष को अपनी प्राथमिकता बना लिया।
फिर पुरुष की प्राथमिकताएं बदलने लगीं
और स्त्री ....
दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे
पायदानों से होती हुई
अंतिम पायदान पर खड़ी
बस देखती रही
अपनी प्राथमिकताओं में
सबसे ऊपर विराजमान
उस पुरुष को ....
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
Thursday, 22 March 2018
अपूर्ण समर्पण
तुम्हें पाना असंभव है शायद
या कुछ कमी साधना में है मेरी।
शायद पूर्ण नहीं समर्पण मेरा
आधी-अधूरी है शायद
आराधना मेरी।
क्यों बोल मेरे नहीं जाते तुम तक
क्यों शून्य में लय हो जाती
पुकार है मेरी?
क्यों अर्पण मेरा अस्वीकृत होता,
क्यों तिरस्कृत हो जाती
भेंट है मेरी?
तुम ही कहो अब, मेरे देवता !
क्या प्रिय तुम्हें जो
कर पाऊँ मैं?
किस विधि, किस पूजा,
किस उपक्रम से
प्रसन्न प्रिय कर पाऊँ तुम्हें ?
क्या राधा का मैं वेश धरूँ
या मीरा-से जोग जगाऊँ मैं?
बन दीपक प्रतिपल जलूँ या
बन शलभ क्षण में जल जाऊँ मैं।
किस राह धरूँ पग, जिस पर चलकर,
हे प्रिय! मैं पा जाऊँ तुम्हें
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
या कुछ कमी साधना में है मेरी।
शायद पूर्ण नहीं समर्पण मेरा
आधी-अधूरी है शायद
आराधना मेरी।
क्यों बोल मेरे नहीं जाते तुम तक
क्यों शून्य में लय हो जाती
पुकार है मेरी?
क्यों अर्पण मेरा अस्वीकृत होता,
क्यों तिरस्कृत हो जाती
भेंट है मेरी?
तुम ही कहो अब, मेरे देवता !
क्या प्रिय तुम्हें जो
कर पाऊँ मैं?
किस विधि, किस पूजा,
किस उपक्रम से
प्रसन्न प्रिय कर पाऊँ तुम्हें ?
क्या राधा का मैं वेश धरूँ
या मीरा-से जोग जगाऊँ मैं?
बन दीपक प्रतिपल जलूँ या
बन शलभ क्षण में जल जाऊँ मैं।
किस राह धरूँ पग, जिस पर चलकर,
हे प्रिय! मैं पा जाऊँ तुम्हें
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
संकोच कर जाते हैं शब्द
संकोच कर जाते हैं शब्द
हो नहीं पाते मुखर,
इस क़दर
कि अनावृत कर डालें सभी
आदिम, मूलभूत कामनाएँ-क्रियाएँ।
हाँ, शब्दों से सजकर
स्वाभाविकता खोकर
खो देती हैं सौंदर्य
कुछ भावनाएँ।
तो क्या हुआ जो
नहीं करते अतिक्रमण
उच्छृंखल नहीं होते
क्या पिछड़े हुए हैं
मेरे शब्द ??
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शालिनी रस्तौगी
हो नहीं पाते मुखर,
इस क़दर
कि अनावृत कर डालें सभी
आदिम, मूलभूत कामनाएँ-क्रियाएँ।
हाँ, शब्दों से सजकर
स्वाभाविकता खोकर
खो देती हैं सौंदर्य
कुछ भावनाएँ।
तो क्या हुआ जो
नहीं करते अतिक्रमण
उच्छृंखल नहीं होते
क्या पिछड़े हुए हैं
मेरे शब्द ??
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शालिनी रस्तौगी
Wednesday, 21 March 2018
प्रारब्ध
प्रारब्ध (लघुकथा)
"तुमसे तो हमारी कोई खुशी बरदाश्त नहीं होती, जब भी ज़रा खुश देखती हो तो कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देती हो" बेटे के शब्द पिघले शीशे की तरह शांतिदेवी के कानों से होते हुए दिल में उतर रहे थे। कहने को तो बहू के लफ्ज़ बेटे से ज़्यादा तल्ख़ थे पर घाव बेटे के लफ़्ज़ों ने ज्यादा गहरे दिए। दिल में फफोले से भर गए और पीड़ा से आँखें छलक आईं। "अब फिर टी. वी. सीरियल की तरह नाटक शुरू" बड़बड़ाता हुआ बेटा गुस्से से बाहर निकल गया। सामने बैठे पोता-पोती सारे वाकये को सहमी-सहमी नज़रों से देख रहे थे। शांतिदेवी की डबडबाई आँखों में करीब 30-32 साल पहले का दृश्य घूम गया ... कुछ ऐसा ही तो था बस फ़र्क इतना था कि किरदारों की भूमिकाएं बदली हुई थीं ... शांतिदेवी की जगह उनकी सास थी और बहू की जगह वह स्वयं थी और सारे झगड़े के चश्मदीद गवाह बन रहे पोता-पोती की जगह उनका यही बेटा जो अभी-अभी उन्हें कितनी ही जली-कटी सुना गया था।
सब कुछ वैसा ही है .... आज फिर कोमल मन में पारिवारिक मूल्यों की जगह विष बीज रोपित किए जा रहे हैं। इतिहास स्वयं को ही दोहरा रहा है पर साथ ही आने वाले कल की पटकथा भी लिखी जा रही है .... आज फिर भविष्य का प्रारब्ध लिखा जा रहा है ....
~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
"तुमसे तो हमारी कोई खुशी बरदाश्त नहीं होती, जब भी ज़रा खुश देखती हो तो कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देती हो" बेटे के शब्द पिघले शीशे की तरह शांतिदेवी के कानों से होते हुए दिल में उतर रहे थे। कहने को तो बहू के लफ्ज़ बेटे से ज़्यादा तल्ख़ थे पर घाव बेटे के लफ़्ज़ों ने ज्यादा गहरे दिए। दिल में फफोले से भर गए और पीड़ा से आँखें छलक आईं। "अब फिर टी. वी. सीरियल की तरह नाटक शुरू" बड़बड़ाता हुआ बेटा गुस्से से बाहर निकल गया। सामने बैठे पोता-पोती सारे वाकये को सहमी-सहमी नज़रों से देख रहे थे। शांतिदेवी की डबडबाई आँखों में करीब 30-32 साल पहले का दृश्य घूम गया ... कुछ ऐसा ही तो था बस फ़र्क इतना था कि किरदारों की भूमिकाएं बदली हुई थीं ... शांतिदेवी की जगह उनकी सास थी और बहू की जगह वह स्वयं थी और सारे झगड़े के चश्मदीद गवाह बन रहे पोता-पोती की जगह उनका यही बेटा जो अभी-अभी उन्हें कितनी ही जली-कटी सुना गया था।
सब कुछ वैसा ही है .... आज फिर कोमल मन में पारिवारिक मूल्यों की जगह विष बीज रोपित किए जा रहे हैं। इतिहास स्वयं को ही दोहरा रहा है पर साथ ही आने वाले कल की पटकथा भी लिखी जा रही है .... आज फिर भविष्य का प्रारब्ध लिखा जा रहा है ....
~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
Monday, 19 March 2018
क़रीब आती है खुद मंजिल, इरादों को देख के
एक ग़ज़ल
~~~~~~~
तरसता दूर से है वो बस गुलाबों को देख के
जो दिल में खौफ खाए तीखे खारों को देख के
छिपा पाओगे कैसे राज-ए-दिल हमसे भला ,
कि मजमून भाँप लेते हैं लिफाफों को देख के
भँवर है किस जगह औ कितनी है गहराई यहाँ
पता चलता नहीं अक्सर किनारों को देख के .
कलाई में लचक तो पाँव में मेंहदी का कभी
यूँ शब-ए-वस्ल लौटे इन बहानों को देख के
करें बेपर्दगी की इल्तेजा अब क्यों हुस्न से
मचल जाए आशिक का दिल हिजाबों को देख के
छलावों से तेरे वादे यूँ भरमाते ही रहे
बुझे कब प्यास सहरा में सराबों को देख के .
जो दूर मंजिल,सफ़र मुश्किल, समय भी रूठे तो क्या ,
क़रीब आती है खुद मंजिल, इरादों को देख के
~~~~~~~
तरसता दूर से है वो बस गुलाबों को देख के
जो दिल में खौफ खाए तीखे खारों को देख के
छिपा पाओगे कैसे राज-ए-दिल हमसे भला ,
कि मजमून भाँप लेते हैं लिफाफों को देख के
भँवर है किस जगह औ कितनी है गहराई यहाँ
पता चलता नहीं अक्सर किनारों को देख के .
कलाई में लचक तो पाँव में मेंहदी का कभी
यूँ शब-ए-वस्ल लौटे इन बहानों को देख के
करें बेपर्दगी की इल्तेजा अब क्यों हुस्न से
मचल जाए आशिक का दिल हिजाबों को देख के
छलावों से तेरे वादे यूँ भरमाते ही रहे
बुझे कब प्यास सहरा में सराबों को देख के .
जो दूर मंजिल,सफ़र मुश्किल, समय भी रूठे तो क्या ,
क़रीब आती है खुद मंजिल, इरादों को देख के
Sunday, 18 March 2018
बात अब लंबी चलेगी
रात है, जाम है, बात अब लंबी चलेगी।
घूँट दर घूँट सरकेगी, शब धीरे ढलेगी।
अपने अश्कों में तर होके सीलेगी आतिश,
पिघलता दिल रहेगा, देर तक शम्मा जलेगी।
नींद, उम्मीद, ख्वाबों से हुई वीरान अब ये,
ता-उमर लंबी शब है, भला कैसे कटेगी।
जो खिंची होती काग़ज़ पे तो मिट भी जाती,
खिंच गई जो दिलों पर, लकीर कैसे मिटेगी।
बाँध बाँधे थे, सैलाब पर, रुकने न पाया,
दर्द बरसा है फिर अश्क़ की नदिया बहेगी।
तीर, तलवार, खंजर, भला क्या चोट देंगे,
तल्ख़ है ग़र ज़ुबाँ, सीधी जा दिल में चुभेगी।
लड़ रहे पेंच नैनों के, दिल दाँव पर है,
जाने किसकी पतंग दिल की कन्नों से कटेगी।
कायदा समझते तुमको भी, ग़र फायदा होता,
उम्र नादान है, बात क्या पल्ले पड़ेगी।
घूँट दर घूँट सरकेगी, शब धीरे ढलेगी।
अपने अश्कों में तर होके सीलेगी आतिश,
पिघलता दिल रहेगा, देर तक शम्मा जलेगी।
नींद, उम्मीद, ख्वाबों से हुई वीरान अब ये,
ता-उमर लंबी शब है, भला कैसे कटेगी।
जो खिंची होती काग़ज़ पे तो मिट भी जाती,
खिंच गई जो दिलों पर, लकीर कैसे मिटेगी।
बाँध बाँधे थे, सैलाब पर, रुकने न पाया,
दर्द बरसा है फिर अश्क़ की नदिया बहेगी।
तीर, तलवार, खंजर, भला क्या चोट देंगे,
तल्ख़ है ग़र ज़ुबाँ, सीधी जा दिल में चुभेगी।
लड़ रहे पेंच नैनों के, दिल दाँव पर है,
जाने किसकी पतंग दिल की कन्नों से कटेगी।
कायदा समझते तुमको भी, ग़र फायदा होता,
उम्र नादान है, बात क्या पल्ले पड़ेगी।
जब भी मैं प्यार लिखूँ
जब भी मैं प्यार लिखूँ
तुम पढ़ लेना खुद को उसमें ।
बिखरते लफ़्ज़ों को समेट
रच दूँ जब नज़्म कोई
तुम ढूँढ़ लेना
अनकहा पैगाम कोई।
कभी मुस्कुराते लब
और नम आँखें लिए
गुनगुनाऊँ जो मैं ग़ज़ल कोई।
तुम महसूस करना
उन अश'आरों में
खामोश -सी आह कोई।
कैनवास पर रंग बिखेरती
उँगलियों के अचानक थरथराने से
जो लहरा जाएँ लकीरें
देख लेना उस तस्वीर में
दिल में मचलती हसरत कोई।
इतना तो तय है
मैं जो भी रचूं
पोशीदा रहोगे तुम ही उसमें।
तुम पढ़ लेना खुद को उसमें ।
बिखरते लफ़्ज़ों को समेट
रच दूँ जब नज़्म कोई
तुम ढूँढ़ लेना
अनकहा पैगाम कोई।
कभी मुस्कुराते लब
और नम आँखें लिए
गुनगुनाऊँ जो मैं ग़ज़ल कोई।
तुम महसूस करना
उन अश'आरों में
खामोश -सी आह कोई।
कैनवास पर रंग बिखेरती
उँगलियों के अचानक थरथराने से
जो लहरा जाएँ लकीरें
देख लेना उस तस्वीर में
दिल में मचलती हसरत कोई।
इतना तो तय है
मैं जो भी रचूं
पोशीदा रहोगे तुम ही उसमें।
किरदार बदलती आँखें
आँखों के...
सिर्फ देखती ही नहीं
देह टटोलती हैं
नाखून बन
जिस्म खरोंचती हैं आँखें।
लिजलिजे कीड़े-सी
भर देती हैं आत्मा में
जुगुप्सा
नहीं रहतीं सीमित आँखें
सिर्फ एक नज़र तक
भाले, बरछी, तीर बन
बींध देती हैं
उतर जाती हैं
कपड़ों के भीतर छिपी देह के
उन बेहद निजी
गलियारों में
घूमते-फिरते पाँव बन जाती हैं
आँखें।
बेहूदगी से ठहाके लगती
फूहड़ से तंज कसती हैं
बेहया ज़ुबान बन जाती हैं आँखें।
इंसानियत छोड़
जाने कैसी वहशत पर उतर आती हैं
औरत जात को देख
किरदार बदल लेती हैं
कुछ मर्दानी आँखें ...
अहं
अहं
बहुत सख़्त होते हैं ये अहं
जब भी आपस में टकराते हैं
लोग भले ही टूट जाएँ
पर अहं क़ायम रह जाते हैं।
ज़िद से पलते
पोषण पाते
बहुत बड़े होते जाते हैं ये अहं
हर संबंध , हर नाते रिश्ते से
ऊपर निकल जाते हैं अहं
बहुत सख़्त होते हैं ये अहं
जब भी आपस में टकराते हैं
लोग भले ही टूट जाएँ
पर अहं क़ायम रह जाते हैं।
ज़िद से पलते
पोषण पाते
बहुत बड़े होते जाते हैं ये अहं
हर संबंध , हर नाते रिश्ते से
ऊपर निकल जाते हैं अहं
Saturday, 17 March 2018
रीती गागर
बूँद -बूँद रिसते,
जब रीत जाता है मन।
मन की खाली गागर लिए,
निकल पड़ती हूँ फिर,
भरने को उसमें
अनचीन्हे दर्द
~~~~~~~~~~
आँसुओं से सीले थे ख्वाब, सुलगते रहे न जल पाए।
बेड़ियाँ पाँव मेरे, तेरे पाँवों पंख, चाह के भी संग न चल पाए।
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
जब रीत जाता है मन।
मन की खाली गागर लिए,
निकल पड़ती हूँ फिर,
भरने को उसमें
अनचीन्हे दर्द
~~~~~~~~~~
आँसुओं से सीले थे ख्वाब, सुलगते रहे न जल पाए।
बेड़ियाँ पाँव मेरे, तेरे पाँवों पंख, चाह के भी संग न चल पाए।
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
चलो अब बराबर, हिसाब किए लेते हैं।
चलो अब बराबर, हिसाब किए लेते हैं।
कुछ तुम रख लो , कुछ हम रख लेते हैं।
हँसी - मुस्कुराहटों के पल तुम ले जाओ,
आँसू का हिसाब हम किए लेते हैं।
वो इंतेज़ार के पल, वो न मिल पाने की तड़प
मिल्कियत है मेरी, सहेज रखूँगी ता उम्र,
वस्ल की रातों के वो महके हुए लम्हें,
अमानत हैं तुम्हारी, लौटाए तुम्हें देते हैं।
शिकवे शिकायतों की कुछ बोझिल सी यादें,
करवटों, बेचैनियों, अश्कों में डूबी रातें
सौंप दो मुझे, दिल से उतार बोझ इनका।
रूठने- मनाने, हँसने- गुनगुनाने के
पंखों से भी नाजुक नरम वो पल
लीजिए हवाले आपके कर देते हैं ...
चलो अब बराबर हिसाब कर लेते हैं।
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
कुछ तुम रख लो , कुछ हम रख लेते हैं।
हँसी - मुस्कुराहटों के पल तुम ले जाओ,
आँसू का हिसाब हम किए लेते हैं।
वो इंतेज़ार के पल, वो न मिल पाने की तड़प
मिल्कियत है मेरी, सहेज रखूँगी ता उम्र,
वस्ल की रातों के वो महके हुए लम्हें,
अमानत हैं तुम्हारी, लौटाए तुम्हें देते हैं।
शिकवे शिकायतों की कुछ बोझिल सी यादें,
करवटों, बेचैनियों, अश्कों में डूबी रातें
सौंप दो मुझे, दिल से उतार बोझ इनका।
रूठने- मनाने, हँसने- गुनगुनाने के
पंखों से भी नाजुक नरम वो पल
लीजिए हवाले आपके कर देते हैं ...
चलो अब बराबर हिसाब कर लेते हैं।
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
Friday, 2 February 2018
समर्पण
तुम्हें पाना असंभव है शायद
या कुछ कमी साधना में है मेरी।
शायद पूर्ण नहीं समर्पण मेरा
आधी-अधूरी है शायद
आराधना मेरी।
क्यों बोल मेरे नहीं जाते तुम तक
क्यों शून्य में लय हो जाती
पुकार है मेरी?
क्यों अर्पण मेरा अस्वीकृत होता,
क्यों तिरस्कृत हो जाती
भेंट है मेरी?
तुम ही कहो अब, मेरे देवता !
क्या प्रिय तुम्हें जो
कर पाऊँ मैं?
किस विधि, किस पूजा,
किस उपक्रम से
प्रसन्न प्रिय कर पाऊँ तुम्हें ?
क्या राधा का मैं वेश धरूँ
या मीरा सी जोगन बन जाऊँ मैं?
बन दीपक मैं प्रतिपल जलूँ या
बन शलभ क्षण में जल जाऊँ मैं।
किस राह धरूँ पग, जिस पर चलकर,
हे प्रिय! मैं पा जाऊँ तुम्हें
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शालिनी रस्तौगी
या कुछ कमी साधना में है मेरी।
शायद पूर्ण नहीं समर्पण मेरा
आधी-अधूरी है शायद
आराधना मेरी।
क्यों बोल मेरे नहीं जाते तुम तक
क्यों शून्य में लय हो जाती
पुकार है मेरी?
क्यों अर्पण मेरा अस्वीकृत होता,
क्यों तिरस्कृत हो जाती
भेंट है मेरी?
तुम ही कहो अब, मेरे देवता !
क्या प्रिय तुम्हें जो
कर पाऊँ मैं?
किस विधि, किस पूजा,
किस उपक्रम से
प्रसन्न प्रिय कर पाऊँ तुम्हें ?
क्या राधा का मैं वेश धरूँ
या मीरा सी जोगन बन जाऊँ मैं?
बन दीपक मैं प्रतिपल जलूँ या
बन शलभ क्षण में जल जाऊँ मैं।
किस राह धरूँ पग, जिस पर चलकर,
हे प्रिय! मैं पा जाऊँ तुम्हें
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शालिनी रस्तौगी
Saturday, 27 January 2018
शिव ... कैसे हो पाता है संभव तुमसे
शिव
कैसे हो पाता है संभव तुमसे
एक साथ होना
संहारक और संरक्षक
वैरागी और सांसारिक
प्रेम में लिप्त होते हुए निर्लिप्त
सब में होते हुए भी निस्पृह
सम्पूर्ण होते हुए भी असम्पृक्त
जीवन का अमृत, मृत्यु गरल
धारण करना एक साथ
कैसे हो पाता है संभव तुमसे
शिव .....
कैसे हो पाता है संभव तुमसे
एक साथ होना
संहारक और संरक्षक
वैरागी और सांसारिक
प्रेम में लिप्त होते हुए निर्लिप्त
सब में होते हुए भी निस्पृह
सम्पूर्ण होते हुए भी असम्पृक्त
जीवन का अमृत, मृत्यु गरल
धारण करना एक साथ
कैसे हो पाता है संभव तुमसे
शिव .....
Tuesday, 23 January 2018
तुम ही चक्र, तुम ही धुरी।
तुम ही पथ, तुम ही गति।
मेरे पथ का आदि तुम,
तुम ही हो हर पथ की इति।
अपूर्णता का तुमसे भान,
संपूर्णता का तुम निधान।
मेरा हरेक विधान तुमसे,
तुम ही हो हर एक विधि।
क्यों नहीं उलटता क्रम यह,
क्यों नहीं पलटती यह नियति।
कभी तुम मेरी करो परिक्रमा
कभी बन रहूँ मैं तुम्हारी धुरी।
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शालिनी रस्तौगी
तुम ही पथ, तुम ही गति।
मेरे पथ का आदि तुम,
तुम ही हो हर पथ की इति।
अपूर्णता का तुमसे भान,
संपूर्णता का तुम निधान।
मेरा हरेक विधान तुमसे,
तुम ही हो हर एक विधि।
क्यों नहीं उलटता क्रम यह,
क्यों नहीं पलटती यह नियति।
कभी तुम मेरी करो परिक्रमा
कभी बन रहूँ मैं तुम्हारी धुरी।
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शालिनी रस्तौगी
अभिमन्यु
अभिमन्यु
बनता जा रहा
आज का युवा
अपने ही चारों ओर
अपने ही द्वारा रचित
चक्रव्यूह में
अपने अंतर्द्वंद्वों को झेलता,
खुद से लड़ता,
स्वयं हथियार बन वार करता
स्वयं ढाल बन बचता।
स्वयं छिन्न-भिन्न हो, निशस्त्र होता।
स्वयं रथचक्र बन
स्वरक्षा हेतु घूमता ,
बनता जाता
क्या नियति के हाथों
इस बार भी धराशायी होगा?
या रण विजेता बन
लौटेगा सदर्प?
अभिमन्यु !!
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शालिनी रस्तौगी
बनता जा रहा
आज का युवा
अपने ही चारों ओर
अपने ही द्वारा रचित
चक्रव्यूह में
अपने अंतर्द्वंद्वों को झेलता,
खुद से लड़ता,
स्वयं हथियार बन वार करता
स्वयं ढाल बन बचता।
स्वयं छिन्न-भिन्न हो, निशस्त्र होता।
स्वयं रथचक्र बन
स्वरक्षा हेतु घूमता ,
बनता जाता
क्या नियति के हाथों
इस बार भी धराशायी होगा?
या रण विजेता बन
लौटेगा सदर्प?
अभिमन्यु !!
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शालिनी रस्तौगी
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