Monday, 7 September 2015
प्यास थी मैं
प्यास थी मैं
सहरा था तू
शुष्क, रसहीन, विरक्त, निर्मोही-सा
न... नहीं भरमाया तूने मुझे
मैं स्वयं को ही भरमाती रही
खुद को ही छलावे दिखलाती रही
दो बूँद पानी की आस मुझे
जाने कहाँ भटकाती रही
हाथ बढ़ा हर बार
छू लेना चाहा ... उस भ्रामक आद्रता को
जो नहीं थी
मेरे भाग्य और तुम्हारे स्वभाव में
ज़िन्दगी से दूर होते
और .. सूखती, चटकती, बिखरती रही
न तृप्त हो पाई कभी
क्योंकि
सहरा थे तुम
प्यास थी मैं
Shalini rastogi
सहरा था तू
शुष्क, रसहीन, विरक्त, निर्मोही-सा
न... नहीं भरमाया तूने मुझे
मैं स्वयं को ही भरमाती रही
खुद को ही छलावे दिखलाती रही
दो बूँद पानी की आस मुझे
जाने कहाँ भटकाती रही
हाथ बढ़ा हर बार
छू लेना चाहा ... उस भ्रामक आद्रता को
जो नहीं थी
मेरे भाग्य और तुम्हारे स्वभाव में
ज़िन्दगी से दूर होते
और .. सूखती, चटकती, बिखरती रही
न तृप्त हो पाई कभी
क्योंकि
सहरा थे तुम
प्यास थी मैं
Shalini rastogi
Wednesday, 2 September 2015
ढलते ढलते एक आँसू, (ग़ज़ल)
ढलते ढलते एक आँसू, रुखसार पे यूँ जम गया
बहते बहते वख्त का दरिया कहीं पे थम गया
पल्कों पे आके ख्वाब इक यूँ ठिठक के रुक गया,
नींद में जैसे अचानक, मासूम बच्चा सहम गया
नींद, चैन औ सुकूँ सब लूट कर वो ले गया
लोग कहते सब्र कर कि जो गया वो कम गया
वो जान थी जो छोड़कर चुपके से हमको थी गई
बदगुमानी में लगा यूँ, सीने से जैसे ग़म गया ...
यूँ प्यार ने तेरे किया दुनिया से बेगाना हमें
छोड़ दुनिया जोग में तेरे ये मनवा रम गया.
रीतापन (क्षणिकाएँ)
1.
कभी छोड़ देना ज़रा
अपनी तन्हाइयों को
मेरी खामोशियों के साथ
फिर देखना दोनों
कितनी बातें करते हैं
2.
अखर जाता है अक्सर
भावों का न होना
दुःख, पीड़ा, कसक, बेचैनी
हाँ, करती तो है
व्याकुल
पर कुछ तो होता है
मन के भीतर
पर रीतापन अंतस का अक्सर
जाता है क्यों
अखर ...
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