आखिर
बाशिंदे थे हम
दो अलग दुनियाओं के
न कभी एक थी हमारी धुरी
न एक क्षितिज अपना
अपने अपने केंद्र के गिर्द ही
घूम रहे थे हम|
प्रत्याकर्षण
न नियति थी अपनी
न प्रकृति
अपने गुरुत्वाकर्षण के विरूद्ध जा
तोड़े थे हमने नियम
तो
सारी कायनात में
मचनी थी
उथल पुथल