Monday, 24 February 2014
Tuesday, 18 February 2014
प्रेम पगी रस में लिपटी, हर बात (सवैया - मत्तगयन्द)
Monday, 10 February 2014
औपचारिकताएँ
औपचारिकताओं में अक्सर
खो जाता है .... अपनापन
सम्बन्ध खोने लगते हैं मायने
मंद पड़ जाती है
रिश्तों की ऊष्मा
दम तोड़ देती है ..आत्मीयता
और शेष रह जाती हैं
सिर्फ
ठंडी, उबाऊ
औपचारिकताएँ ....
Monday, 3 February 2014
उपेक्षित
देखा है कभी
किसी दरख़्त को
जीवन का रस खो
ठूंठ में बदलते हुए
गर्वोन्मत्त शाखाएँ
जब एक एक कर होती
हैं
हरित श्री से विहीन
कैसे होता है
मान-मर्दन उसका
पीली पड़ती पत्तियां
जब
छोड़तीं साथ एक-एक कर
कैसे पल-पल छीजता है
उसका अस्तित्व
जमीन छोड़ देती है
जब साथ जड़ों का
उभर आती हैं धरती की
त्वचा पर
बुढ़ापे में उभरी
नसों-सी
फिर भी न जाने
किस जिजीविषा से
अपनी कंपकपाहट को
टाँगों में समेट
खड़ा रहता है मूक
दर्शक बन
परिवार के उपेक्षित
वृद्ध सम
मानो पूछता हो
हमेशा दिया ही तुमको
क्या माँगते हुए
देखा है कभी
Sunday, 2 February 2014
मैं शायर तो नहीं (ग़ज़ल)
अश्कों की स्याही से, दिल के जज़्बात
लिखते हैं,
कभी अपने तो कभी ज़माने के हालात लिखते हैं,
कौन कहता है कि अपनी ही धुन में मगन हैं वो
हर वाकये पे नज़र रखते, ख्यालात लिखते हैं .
ग़मों का चलाते हैं कभी मुसल्सल कारवाँ,
तो कभी ढेर खुशियों कि बारात लिखते हैं.
मुआमला सियाती हो, रूहानी कि जज्बाती,
हर मामले पे शायर तो, हजरात लिखते हैं .
बेखबर खुद से हों चाहें न खबर हो अपनों की,
ज़माने भर कि मगर ये, मालूमात लिखते हैं.
फूलों कि महक, हवा के रंग, दरिया की रवानगी
कागज़ के टुकड़े के सारी, कायनात लिखते हैं ..
कभी अपने तो कभी ज़माने के हालात लिखते हैं,
कौन कहता है कि अपनी ही धुन में मगन हैं वो
हर वाकये पे नज़र रखते, ख्यालात लिखते हैं .
ग़मों का चलाते हैं कभी मुसल्सल कारवाँ,
तो कभी ढेर खुशियों कि बारात लिखते हैं.
मुआमला सियाती हो, रूहानी कि जज्बाती,
हर मामले पे शायर तो, हजरात लिखते हैं .
बेखबर खुद से हों चाहें न खबर हो अपनों की,
ज़माने भर कि मगर ये, मालूमात लिखते हैं.
फूलों कि महक, हवा के रंग, दरिया की रवानगी
कागज़ के टुकड़े के सारी, कायनात लिखते हैं ..
जाऊं दूर तो पास बुला लेती हैं मुझे,( ग़ज़ल )
~~एक ग़ज़ल ~~
मंजिलें मेरी अक्सर सदा देती हैं मुझे
जाऊं दूर तो पास बुला लेती हैं मुझे,
मंजिलें मेरी अक्सर सदा देती हैं मुझे
जाऊं दूर तो पास बुला लेती हैं मुझे,
रास्ता कोई भी पूरा हो पाता नहीं
हर बार क्यों नई राह खींच लेती है मुझे
हर बार एक ही तो ख़ता मुझसे है हुई
तकदीर फिर क्यों नई सज़ा देती है मुझे .
मैं अंश हूँ कुदरत की, उसी ने रचा मुझे
फिर क्यों बना करके मिटा देती है मुझे
मेरा गुरूर मुझको फलक तक ले जाए
तेरी खुदाई औकात दिखा देती है मुझे
मैं कामयाबी का पता भूल जाती हूँ
हर बार अपना वो पता देती है मुझे
अब मुझसे तो इसको सहा जाता नहीं
ये ज़िन्दगी जाने कैसे सहती है मुझे
कदमों पे उसके सर ये रखना जो चाहूँ
गैरत हमेशा रोक ही लेती है मुझे
पानी पर तस्वीरें भला कब बनती हैं (ग़ज़ल)
पानी पर एक तस्वीर बनायीं थी,
हमने खुद अपनी तकदीर सजाई थी,
हमने खुद अपनी तकदीर सजाई थी,
न जाने कौन लूट ले गया क़रार,
मुद्दतों हमने ये जागीर छिपाई थी .
क्यों करती लिहाज भला रिश्तों का
लोग अपने मगर शमशीर पराई थी.
चाह के भी उसको तोड़ हम न सके
प्यार की नाजुक जंज़ीर पहनाई थी
दास्ताँ पे उसकी कैसे न यकीन करते
कहानी उसने कुछ ऐसी सुनाई थी
कहाँ से ढूँढ़ते हम मिसाल उसकी
सूरत ही उसने बेमिसाल पायी थी
क्यों ढूँढ़ता मुकद्दर लकीरों में वो
उसने किस्मत मुट्ठी में समाई थी
ग़ज़ल
है किसी को शौक अपने दर्द को छिपाने का
शौक रखे कोई नुमाइश दर्द की सजाने का
शौक ए आतिश तो दोनों हो फरमाते हैं
शौक जलने का हमें तो उनको है जलाने का
एक इरादा कर लिया है आज दोनों ही ने
हमने नजदीकियाँ तो उसने दूरियाँ बढ़ने का
जान देने की वज़ह वाजिब हमारी है, तो
इंतज़ार क्यों हो हमें नए किसी बहाने का
क्या वफ़ा है क्या है अना सब बातें बीते दौर की
पर चलन ही आज है कुछ और इस ज़माने का
शौक रखे कोई नुमाइश दर्द की सजाने का
शौक ए आतिश तो दोनों हो फरमाते हैं
शौक जलने का हमें तो उनको है जलाने का
एक इरादा कर लिया है आज दोनों ही ने
हमने नजदीकियाँ तो उसने दूरियाँ बढ़ने का
जान देने की वज़ह वाजिब हमारी है, तो
इंतज़ार क्यों हो हमें नए किसी बहाने का
क्या वफ़ा है क्या है अना सब बातें बीते दौर की
पर चलन ही आज है कुछ और इस ज़माने का
सुर्खियाँ
सुर्खियाँ
अखबारों में,
न्यूज़ चैनलस् पर,
ख़बरें बेहिसाब पर मुद्दा एक
दरिंदों की वहशत एक
शिकार अलग अलग
हर उम्र, हर अवस्था, हर परिवेश से
गाँव, गली, पड़ोस या विदेश से
शर्त सिर्फ एक
शरीर औरत का हो
फिर देखो,
कैसे किया जाता है तार तार
उसकी इज़्ज़त, उसकी रूह, उसके जिस्म को
होड़ लगी है दरिंदगी की
कौन आगे निकलता है
अपने नपुंसक पुरुषत्व के मद में
उस बेबस जिस्म पर
हैवानियत के ज़्यादा से ज़्यादा निशान छोड़
उसकी आत्मा को पूरा मार
और शरीर को अधमरा छोड़
करता अट्टहास
रच शैतानियत का नया इतिहास
बना देता है उन्हें
औरतों, लड़कियों, बच्चियों से
अखबारों, न्यूज़ चैनलस् की
सुर्खियाँ .........
~शालिनी रस्तोगी ~
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