रात की दहलीज़ पर बैठ, करते रहे इन्तेज़ार,
बेज़ुबान चाँद की खामोश नज़र, करती रही बेक़रार.
सर्द सितारों की नज़रें भी, डबडबाने-सी लगी थी,
पलकें भी न झपकी हमने, न जाने किस खुमार में.
फलक के तारे भी कम पड़ गए गिनने को,
रात ही क्या, उम्र गुज़र गई, इस इन्तेज़ार में.
सामने तुम थे मगर, वो कौन से ताले जड़े थे,
होंठ न हिल भी पाए, मुहब्बत के इज़हार में.
कभी दरम्यां आ गया, मीलों का फासला,
कभी दो कदम ही दरम्यां थे बस, तेरे दीदार में.
आँख नम भी न हुई उसकी, सुन दास्ताँ मेरी.
पुरनम थे चश्म सुन के जिसे, सारी कायनात के
दूर से देखते रहे मेरा जनाज़ा, इत्मीनान से
तुझसे तो नर्मदिल हैं, संग मेरी मज़ार के.
बरस भी न पाए जम के, आहों के बादल ,
आँखों में घुमड़ के रह गए, बादल गुबार के.