Sunday, 28 May 2017

माँ


माँ
💝💝💝💝💝💝💝
कौन कहता है कि सिर्फ माँ होती है माँ
कभी पिता, कभी बहन 
कभी सहेली, कभी दोस्त
कभी हमराज़, कभी मार्गदर्शक 
तो कभी गुरु बन जाती माँ।
कभी दीवार बन गलत रास्ते पर खड़ी हो जाती
कभी दरवाज़ा बन खुशियों को बुलाती
कभी छत बन कर हर मुसीबत को
अपने सर ले लेती है माँ
सिर्फ माँ नहीं होती है माँ
कभी लोरी बन नींदों को सजाती
कभी करुणा बन आँखों से छलक जाती
कभी मुस्कान बन होंठों पर कलियाँ खिलाती
कभी हौंसला बन इरादों को फौलाद बनाती है माँ
सिर्फ माँ नहीं होती है माँ
💝💝💝💝💝💝💝💝💝

Sunday, 14 May 2017

नार मनोहर



सवैया 
सोहत नार मनोहर मोहक, मोह लियो मन सारि गुलाबी।
बैन बने महुआ मदिरा सम, चैन चुरावत नैन शराबी।
चाल चले मनमोहक वेणि हिले कटि ठाठ दिखाय नवाबी।
कौन सखी तुझ-सा बतला अब कौन मिले तुझसा रि जवाबी।
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

दोहे नीति के

तुझ को घट-घट खोजती, तुझ में हुई विलीन।
मैं भी अब तू बन गई, कौन रहा अब हीन।।

मन के मैं को मार के, नीचा करके सीस।
निभते हैं रिश्ते तभी, मिट जाए जब रीस।।

हाँ ... तुम स्वतन्त्र हो

हाँ ... तुम स्वतन्त्र हो 

पूरी तरह स्वतन्त्र 
पर देखो 
इस आज़ादी का  मतलब 
कुछ गलत मत लगाना ....
जीने का पूरा हक़ है तुम्हें
पर ज़रूरत से ज्यादा साँसे मत लेना |
हक़ रखती हो बोलने का, 
अपने दिल की कहने का, 
पर देखो... 
जो अच्छा सबको लगे 
केवल वही तुम  कहना |
वैसे हर बात के लिए ... तुम आज़ाद हो 

किसने कहा कि घर की चौहद्दियों में कैद हो तुम? 
आधुनिक नारी हो ..
कोई हद भला बाँधेगी तुम्हे क्यों कर ?
पर कदम घर से बाहर रखने से पहले 
इजाजत मेरी तुम लेना| 
वैसे अपनी मर्ज़ी की मालिक हो ....हाँ 
बिलकुल स्वतन्त्र हो |
पूरी तरह आज़ाद हो तुम ...
तुम्हारे फैसले,
तुम्हारी ज़िन्दगी, 
तुम्हारी बातें, तुम्हारी साँसें, 
तुम्हारी ज़िद, तुम्हारा गुरूर
तुम्हारी हँसी.....सब कुछ  
बस तभी तक है सही 
जब तक वो मेरे अधिकार क्षेत्र में है 
बस इस अधिकार क्षेत्र की सीमा ...
इस पुरुष द्वारा खींची गई 
लक्ष्मण रेखा को ....
लाँघने का विचार 
दिल से परे रखना |
वैसे 
बाकी हर बात के लिए तुम 
पूरी तरह .... स्वतन्त्र हो?




Friday, 12 May 2017

खुद ब खुद

खुद ब खुद
होने लगती हैं अचानक
कई क्रियाएँ।
पता नहीं क्यों
पर खुद ही बाँध लिए जाते हैं
बंधन पाँव में।
चलते हुए पाँव
अचानक
समेट लेते हैं
अपनी रफ़्तार
बदल लेते हैं दिशा।
जाने कैसे
खुद ही संचालित होने लगती हैं
अनचाही गतिविधियां
कभी माथे की शिकन से,
कभी किसी नाराजगी के डर से।
और मन बड़े ही बेमन से
खुद को ही मार कर
फिर करने लग जाता है वो सब
जो हम नहीं ...... दूसरे चाहते हैं।
औरतों के दिमाग में
सदियों से फीड कर दी गई
ये स्वचालित क्रियाएँ
मौका मिलते ही
अपनी चाहतों और इच्छाओं को
एक भारी शिला के नीचे दबा
होने लग जाती हैं
खुद ब खुद
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

कलम की नोक पर



हाथ में थमी     
कलम की नोक पर
रखी हैं न जाने
कितनी बातें, कितने अफ़साने,
शब्दों में ढलने को आतुर
हजारों ख्वाहिशें|
पर कलम की नोक से
कागज़ तक का यह सफ़र
इतना तो आसाँ नहीं,
बीच में आ घेरते हैं
न जाने कितने अंतर्द्वंद्व
बाधा बन, राह रोक
खड़ी हो जाती हैं
न जाने कितनी वर्जनाएँ|
और बंधनों के कसते दायरों में
छटपटा कर
दम तोड़ देती हैं कितनी ही कविताएँ
हाथ में थमी कलम की नोक पर.............
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

अमर जवान ज्योति

अनगिनत दीप  
जो बुझे नहीं 
अमर हो गए ।
झिलमिलाते रहेंगे सदा 
स्मृतियों में,
जगमगाएंगे देश के पटल पर
बन सितारे,
किसी के प्राण , किसी के प्यारे,
विलीन हो गए शून्य में पर ,
शून्य नहीं अनंत हो गए।
नहीं श्रद्धांजलि,
वादा चाहते हैं हमसे,
उस अमर ज्योति के
सदा प्रज्वलन का,
जिससे प्रकाशित थे ......
वे दीप
💐💐💐💐
शालिनी रस्तौगी

एक शहर .... तब और अब

एक शहर  ... तब और अब
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बहुत मिलनसार था कभी यह शहर 
गहरी दोस्ती हुआ करती थी गलियारों में,
गलबहियाँ डाल कर उलझे रहते थे आपस में |
रास्ते मिलते थे अपनेपन से आपस में|
चौराहे अक्सर बैठ किस्से सुनाते थे|
नैन मटक्का कभी करते छज्जे
छतों से छत को कभी पैगाम जाते थे |
पतंगे बेमतलब उलझ पड़ती थी आपस में
सूखते दुपट्टे पड़ोस जाने को बहाने बनाते थे |
वो रोशनदानों के बुलंद ठहाकों के सुर
मोहल्ले को अक्सर गुलज़ार बनाते थे|
न इतनी भीड़ थी न शोर था फिर भी
रौनक थी, चहल-पहल सी रहती थी |
एक अपनाहत थी जो चेहरों पर घरों के
बन मुस्कान हमेशा सजी संवरी सी रहती थी
बहुत खामोश रहते हैं दरवाज़े इस शहर के
खिड़कियाँ भी तो बात अब करती नहीं हैं
ओट से झाँकती चौखटों के लबों पर
जाने कैसी चुप्पी है जो यूँ पसरी हुई है
एक अबोला-सा बिखरा है गलियों में
रस्ते देख इक दूजे को मुँह अब फेर लेते हैं |
यूँ तो ज़माने भर की रौनकें हैं
भीड़ भी बेशुमार है यहाँ
कहीं कुछ खोया है तो वो अपनापन,
वो गर्माहट भरे रिश्ते हैं गुमशुदा
नज़र कैसी लगी है जाने मेरे शहर को आज
~~~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

सफर तुम्हारे साथ आसान हो गया

शिकवे भी रहे कुछ
शिकायत भी करते हम रहे 
हर बार तुम मुस्करा कर 
बात पर करते रहे 
बहुत की नादानियां
कभी ज़िद पर हम अड़े
कभी मुंह फुला बैठे
कभी मुंह फेर हुए खड़े।
पर तुमने न जाने कैसे
हर बात को सहा
हर बार मना कर
झगड़ा ख़त्म किया ।
नहीं कहूँगी कि फूल बिछाए थे राह में
पर काँटा भी तो कभी
कोई चुभने न दिया।
ज़िन्दगी की डगर यूँ तो आसान नहीं थी
पर सफर तुम्हारे साथ
आसान हो गया


बंद पलकों पर कोई ख्व़ाब रख दे



बंद पलकों पर कोई ख्व़ाब रख दे,
अँधेरी रातों पे माहताब रख दे,
नाम तेरा लब पे मेरे सजे है यूँ,
जैसे होंठों पे कोई गुलाब रख दे|

कष्ट देता है

कष्ट देता है अक्सर 
भावों को पी जाना 
बहुत कुछ कहना चाह कर भी 
कुछ नहीं कह पाना|
भाव, जो शब्द बन 
जुबान से निकल नहीं पाते हैं |
तेज़ाब बन कर के वो
हलक में उतर जाते हैं|
अन्दर ही अन्दर
खौलते बुदबुदाते हैं|
कहीं औरों तक न पहुँचे
आँच उनकी
यही सोच कर निशब्द
खुद ही जल जाते हैं|
किसी भाव का यूँ
अंतस में मर जाना
अक्सर
बहुत कष्ट देता हैं|
~~~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

क़रीब आती है खुद मंजिल, इरादों को देख के : एक ग़ज़ल

एक ग़ज़ल
~~~~~~~

तरसता दूर से है वो बस गुलाबों को देख के
जो दिल में खौफ खाए तीखे खारों को देख के

छिपा पाओगे कैसे राज-ए-दिल हमसे भला ,
कि मजमून भाँप लेते हैं लिफाफों को देख के

भँवर है किस जगह औ कितनी है गहराई यहाँ
पता चलता नहीं अक्सर किनारों को देख के .

कलाई में लचक तो पाँव में मेंहदी का कभी
यूँ शब-ए-वस्ल लौटे इन बहानों को देख के

करें बेपर्दगी की इल्तेजा अब क्यों हुस्न से
मचल जाए आशिक का दिल हिजाबों को देख के

छलावों से तेरे वादे यूँ भरमाते ही रहे
बुझे कब प्यास सहरा में, सराबों को देख के .

जो दूर मंजिल,सफ़र मुश्किल, समय भी ग़र साथ नहीं,
क़रीब आती है खुद मंजिल, इरादों को देख के


आप की बात दूजी है.- ग़ज़ल

~~~~~~
अनोखी कहते-लिखते हैं, आप की बात दूजी है.
कि हम वो बात कहते हैं जो सबकी जानी-बूझी है |
खुदा ने जल्दबाज़ी में लिखा है कुछ नसीब अपना.
कभी तो वख्त रूठा तो कभी तकदीर रूठी है.
जुडी है सोच तुम से यूँ जो तुम सोचो वो हम सोचें
कहाँ हम को कभी कोई अलग-सी बात सूझी है .
सुना है किश्तियाँ अक्सर भँवर में डूब जाती हैं
मगर अपनी किनारे पे हमेशा नाव डूबी है .
जुबां पे कुछ औ दिल में जुदा-सी बात रखते लोग
कि हम मुँह पर ही कह देते ये हमारी अपनी खूबी है
चमक आ जाए आँखों में नज़र इक तुझको ले जो देख
कोई कहता तू हीरा है कोई बोले तू रूबी है .
सियासतदाँ लगे हैं बस महल अपने सजाने में
कि परवाह क्या गरीबों की कुटी जो टूटी-फूटी है.

जीवन की सुगबुगाहट

जीवन की सुगबुगाहट 
होती है 
जब भी होती है 
मृत्यु की आहट..
हर समाप्ति के साथ 
उद्भव होता है आरम्भ
हर अंत होता है
नई संसृति का आदि
कोंपलें फूटती तभी नई जब
त्यागता वृक्ष
पीत. जर्जर, निष्प्राण पात 

अहम् के अंत से ही
जन्मता भाव स्वत्व का
छूटते हाथ
गढ़ते हैं नए रिश्ते
समाप्ति पर ही कौमार्य की
होती है गर्भ में
जीवन की सुगबुगाहट .....

कुछ न बोल, चुप रह, ए जुबान अभी।

कुछ न बोल, चुप रह, ए जुबान अभी।
दिल ये कर रहा है कुछ बयान अभी।
फिर निशाने पे है दिल किसी का देखो,
है खिंची हुई नज़र की कमान अभी।
शहरे याद में शब भर भटकता फिरा
है दिमाग के पैरों में थकान अभी ।
फिर सँवरने में वख्त लग जाएगा,
गुज़रा है यहाँ से इक तूफ़ान अभी।
चल रहा फरिश्तों औ शैताँ में जुआ,
दाँव पर है इन्सां का ईमान अभी।
क्या खरीदेंगे, सब कुछ तो बिक रहा,
है सजी हुई रिश्तों की दुकान अभी
~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

तुम सूर्य, मैं धरा

तुम सूर्य, 
मैं धरा 
यूँ तो अस्तित्व मेरा तुमसे 
तुमसे बँधी नियति मेरी,
पर कैसा यह विधान 
कि बँधी अपनी धुरी से
तुम्हें देखती मैं
चहुँ ओर तुम्हारे घूमती भी
पर कभी तोड़ वलय सीमा
नहीं पहुँच पाती तुम तक|
क्षीण कर अपना तेज
तुम भी नहीं लाँघते
मर्यादा अपनी|
बस दूर से ही प्रेम ताप दे
रखते जीवित
उस प्रेमांकुर को|
क्योंकि लाँघना सीमाओं को
अक्सर कर देता है
भस्म सब कुछ
क्या प्रेम क्या अस्तित्व.....
तो शून्य से अनंत तक
हर पल निरंतर
प्रतीक्षा विहीन प्रेम में रत
मुझ धरा के
तुम सूर्य|
~~~~~~~~~~~~~
shalini rastogi

गुलाबी इन्कलाब

वक़्त आ गया है 
कि अब 
आधी आबादी
बाकी आधी आबादी को
मात्र जिस्म न समझे।
नहीं मिल जाता हक़
आधी आबादी को
बाकी की
आधी आबादी के पहनावे पर
आक्षेप कर
अपने नग्न व्यवहार हो छिपाने का।
कोई भी समय उपयुक्त नहीं कहा जाएगा
वहशत दिखने का।
तुम्हारा शारीरिक ताकत,
तुम्हारी संख्या
या अँधेरी सूनसान जगह
इजाज़त नहीं है
उनके शरीर पर
तुम्हारे मालिकाना हक़ की।
उनका
हँसना, खिलखिलाना, बोलना या नाचना



संकेत नहीं माना जा सकता
उनकी स्वीकृति का।
समझना ही होगा आधी आबादी को
कि उनका नर होना
नारी की देह, आत्मा, विचार और संवेदनाओ पर
शासन का अधिकार पत्र नहीं।
अब नहीं चलेगी मनमानी
नीले रंग की
गुलाबी पर कालिख मलने की
क्योंकि
गुलाबी इंकलाब का अब
वक़्त आ गया है....
~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

भोगवती : पातालगंगा

स्त्री.....
पाताल गंगा-सी                                             
सदियों से बहती रही,
एक कठोर सामाजिक धरातल तले।
नहीं स्वीकृत की गई, 
उसके लिए,
उन्मत्त लहरों की उछृंखलता।
छिपाए रखा उसने,
अपनी भाव तरंगों को,
मचलती उमंगों को,
अपने सचल होने को,
चल-चंचल अल्हड़पन को।
नहीं उछल पाई वह,
मस्त पवन की उत्ताल तरंगों पर आरूढ़,
नहीं बह पाई,
मनचाहे, अनजाने रास्तों पर,
काट कर चट्टानें प्रतिबंधों की।
'भोगवती'* की संज्ञा देकर,
प्रयास हुए अथक
लघु करने के .. महत्ता उसकी।
निरंतर हुए घातों से मर्म
भले हुआ क्षत-विक्षत उसका।
पर
उसकी तरलता
नहीं बनी पाषाण
बहती रही वह.... निरंतर, अविरल, अविचल
नहीं दबी .... उसकी अदम्य जिजीविषा।
लाख पहरों, लाख परदों, लाख प्रतिबंधों के तले,
न थमी, न शुष्क हो गतिहीन हुई
धरा तले पाषाणों से,
सिर टकरा चट्टानों से,
बूँद-बूँद रिस दरारों से,
बनाती नए रास्ते
निरंतर रही प्रवाहमान
पाताल गंगा-सी
स्त्री...
(*भोगवती : पाताल गंगा को कहा जाता है, शिव जटा से निकली गंगा तीन धाराओं में विभक्त हो गईं, एक आकाश गंगा, एक धरती पर बही और एक पाताल गंगा बन गयी।)
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

ग़ज़ल - दिल मेरी नहीं सुनता

दरद तक़लीफ़ आहों की कथा कोई नहीं सुनता,
कि शहरे बुत में कोई बात जज़्बाती नहीं सुनता।
अजब सा दौर है साहब, यहाँ सब अपनी कहते हैं।
कि मैं तेरी नहीं सुनती हूँ, तू मेरी नहीं सुनता ।
यही सब सोच कर मैं आजकल हैरान रहती हूँ,
कि मैं दिल की नहीं सुनती या दिल मेरी नहीं सुनता।
ज़ुबानी तेग औ खंज़र ही बातें लोग करते हैं,
हैवानी शोर में आवाज़ इंसानी नहीं सुनता।
ख़त्म होने से पहले ही बना लेता है राय वो,
यही ख़ामी है उसकी बात वो पूरी नहीं सुनता।
ख़री सी कहता -सुनता है, ख़ुशामद से नावाक़िफ़ है,
अजब है बैठ कुर्सी पर वो जी-हुजूरी नहीं सुनता ।
Shalini Rastogi

ध्रुवीकरण

अच्छा नहीं होता 
ध्रुवीकरण 
चाहे सत्ता का हो,
या फिर विचारों का।
जब एकमुखपेक्षी हो जाते हैं
विचार
स्वतन्त्र नहीं रहते।
घूम कर-फिर कर
फिर फिर लौट आते हैं
अपने केंद्र के पास।
सीमाएँ तोड़
नहीं बन पाते अनंत।
शून्य में विचरते,
स्वयं शून्य हो जाते हैं।
स्वयं अपने हाथों से थमा
अपनी बागडोर
किसी के अधीन जब हो जाते हैं।
न गत्यात्मकता रहती
न चलायमान रह पाते।
बदलाव की चाहत में,
एक केंद्र को छोड़
दूसरे केंद्र से बंध जाना
परिवर्तन नहीं होता।
हाँ ध्रुवीकरण
विचारों का हो या सत्ता का
अच्छा नहीं होता।
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

तिलिस्म

यकीं होने भी नहीं देता।
यकीं खोने भी नहीं देता। 
तिलिस्म ऐसा है कुछ उसका,
रिहा होने भी नहीं देता ।
~~~~~~~~~~~
Shalini rastogi

दशानन

कितने चेहरे ........
एक पर एक
मुखौटा चढाए
कितने ही चेहरों के पीछे 
खुद को छिपाए
डर के भागते फिरते हैं
कहीं अपनी खुद से
मुलाकात न हो जाए
हर मौके के लिए
 एक नया चेहरा तैयार रखते
कभी ताजातरीन
कभी ग़मगीन दिखते
क्या भूल नहीं गए हम
वाकई
क्या महसूस हम करते ?
कभी आईने में
अक्स असली देख अपना
बेतरह चौंक जाते
 घड़ी दो घड़ी को तो
खुद को भी पहचान कहाँ पाते
 फिर कोशिशे करते
उस चेहरे पे
नया मुलम्मा चढाने की
असलियत खुद की
खुद से ही छिपाने की
दस चेहरों पे
 अनगिनत भाव लिए
क्या बनते नहीं जा रहे हम
दशानन ........???
~~~~~~~~~
Shalini rastogi
(चित्र गूगल से साभार)

बुरी औरत

अच्छी पत्नी
अच्छी माँ                                       
अच्छी बहन, अच्छी बेटी
अच्छी बहू, अच्छी औरत......
औरत के गिर्द
अच्छाइयों के पत्थर जमाते-जमाते
उसे जीते जी मक़बरा बना दिया
अच्छाई का,
और दफ़न कर दीं
उसकी सब इंसानी भावनाएँ।
और वह अच्छाइयों के तले दबी
सुनती रही सबसे
अपनी अच्छाइयों की गाथाएँ।
कोशिश की जब भी कभी उसने
अच्छाइयों के पत्थर सरकाने की
दरकने लगीं नीवें समाज की।
आखिर औरत के कन्धों पर ही तो धरा था
बोझ संस्कारों का,
संस्कृति का, विचारों का।
नित प्रति कसते जाते
अच्छाइयों के दायरे से,
संकुचित होती जाती
रिवाजों की दीवारों से,
बंद खिड़की-दीवारों से,
झिरियों से , सुराखों से,
जब कभी रिसकर
बह निकली वह औऱ
मौन के आवरण से निकल
गुनगुना उठी तो...
उसके इंसान हीने के दावे को,
अपने वजूद, अपनी पहचान, अपने हक़ में ,
उठती आवाज़ को
विद्रोह की संज्ञा दे
इस जुर्म के एवज
दे दिया गया बस एक नाम..... 'बुरी औरत'
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

कुछ दोहे त्योहारों के

वसंत पंचमी
श्वेत कमल विराज रही, वाहन हंसा श्वेत।
शुभ्र वस्त्र में शोभती, वीणा स्वर समवेत।।
कुमति हरो माँ शारदे, दो प्रज्ञा वरदान।
वाक् अर्थ में प्रवीण हों, मिट जाय तम अज्ञान ।।
गणतंत्र दिवस 
आँख में स्वाभिमान का, हृदय गर्व का मन्त्र।
अक्षुण्ण कीर्ति से सदा, जगमग हो गणतंत्र ।।

रक्षा बंधन

राखी बंधन प्यार का, सुन्दर इक उपहार।
कच्चे धागों में बंधा, छोटा - सा संसार ।।
लगा के माथे पर तिलक, बाँध कलाई प्यार।
रक्षा के विश्वास के, बहना जोड़े तार।।
शरद पूर्णिमा 
शरत ऋतु की पूनम में , चाँद खिला आकाश।
दिखलाए सोलह कला, लगे खीर का प्राश।।
Shalini rastogi 

पलाश


फूले वृक्ष पलाश ज्यों, अगनी के हों फूल।

दहका-दहका वन लगे, विरह चुभे ज्यों शूल।।

महुआ और पलाश से, देख सज गया फाग।
राग-रंग बिखरा गली, विरहन हृदय विराग।।




सवैया - मनभावन फागुन



सवैया 
मनभावन फागुन झूम रहा, सर बोल रही चढ़ भाँग सखी।
सरकी सर से चुनरी बहकी, अब ढंग तजा, सब लाज रखी।
हरषाय लखे सजना सजनी, मुसकाय खड़ी पिय प्रेम लखी।
कचनार कपोल भए जब रंग, मले सजना भर अंग सखी।
shalini rastogi 
(चित्र गूगल से साभार)

सवैया - ले गगरी निकली पनिहारिन




सवैया 
ले गगरी निकली पनिहारिन, छैल सभी निकले घरसे।
मंथर सी गति, चाबुक सी कटि, पैर धरे भू मन हुलसे।
नाजुक हाथ कलाइ मुड़ी, घट नीर भरा न गया उनसे।
रूप भरी छलकी गगरी, मन प्यास बुझी नयना हरसे।
शालिनी रस्तौगी

(चित्र गूगल से साभार)

आवारा भाव


आवारा भाव 
इधर-उधर, बेतहाशा 
दौड़ते से भाव....
न सीमा मानते, न बंधन 
हर दहलीज को उलांघते हैं भाव|
कभी झिरियों
कभी सुराखों से
कभी दीवार में पड़ी दरारों से,
हर दरवाज़े को तोड़,
हर कड़ी को खोल,
सेंध लगा कर
अनायास अनधिकृत ही
निषिद्ध क्षेत्रों में कर प्रवेश
मचाते उत्पात,
यूँही कभी उपद्रवी बन जाते हैं भाव....
कभी मर्यादाओं से टकरा
कभी रूढ़ियों की चट्टानों पर सिर पटक
ज़ख़्मी हो
तानों और उलाहनों की
कंटीली डगर पर घिसटते
छिला जिस्म ले
कहराते, पर रुक न पाते भाव....
जाने किस आवारगी की
लत लगा कर
फिरते हैं इधर-उधर
आवारा भाव
~~~~~~~~~~~~~
shalini rastogi

(चित्र गूगल से साभार)

सा न अहम्



सा न अहम् 
मैं कौन?
क्या अस्तित्व मेरा?
क्या मेरा कृत्य?
क्या कर्त्तव्य मेरा?
न उद्भव मेरा मेरे वश में
न अवसान पर अधिकार मेरा।
जब तू ही विधि, तू ही विधाता
तू ही नियति, तू ही नियंता
तू ही सृष्टि, तू नियामक सृष्टि का.....
तेरा ही संकेत पाकर ,
चलते सब कारोबार,
क्या जड़, क्या चेतन,
सब पर तेरा अधिकार।
मेरी हर श्वास पर,
हर आती जाती आस पर,
विश्वास पर, अविश्वास पर
मेरी चेतना,
मेरे अवचेतन-अचेतन पर....
जब रोम रोम मेरा निबद्ध तुझसे।
तो कैसे हुई अच्छी?
कैसे बुरी मैं?
क्या कृत्य अच्छा, क्या बुरा मेरा।
उचित-अनुचित, पाप -पुण्य
अच्छा बुरा का दोष
क्योंकर हुआ मेरा?
मैं मात्र कठपुतली
डोर हाथ तेरे,
सौंपती हूँ तुझको,
सब पुण्य-पाप तेरे।
न मेरी इच्छा से कुछ गठित कुछ
न कुछ किया घटित मैंने।
मुझ अकिंचन की क्षमता क्या?
जो भी किया , तुमने किया
हर घटित का कारण क्या ?
बस
इतना ही जानती मैं ...
सः त्वं
सा न अहम्
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

साफ़गोई से हरेक अब बात होनी चाहिए - ग़ज़ल

ग़ज़ल
अब न कोई पीठ पीछे घात होनी चाहिए
साफ़गोई से हरेक अब बात होनी चाहिए
हर ऐरे गैरे के बस का ये पागलपन है नहीं 
इश्क फरमाने की भी औकात होनी चाहिए
फ़र्क क्यों हो आदमी के बीच कोई धर्म का
एक ही बस इंसानियत की जात होनी चाहिए
घर किसी मजलूम का महरूम खुशियों से न हो
हर के घर में खुशियों की सौगात होनी चाहिए
बात तब है सर उठा संसार में नेकी चले
औ बदी की ही हमेशा मात होनी चाहिए
रात मावस की अगर जो चाँद से महरूम हो
आसमां में तारों की बारात होनी चाहिए
देश के हालात से कोई न अब गाफ़िल रहे
हर मुआमले की ही मालूमात होनी चाहिए
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
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