Thursday, 27 September 2012

राज़-ए-जिंदगी


राज़-ए-जिंदगी जानने को, उठाए ही थे कदम 
सफर शुरू भी न हुआ था, कि जिंदगी तमाम हुई|

हज़ार झंझटों में उलझी जिंदगी कुछ यूँ बेतरह 
कि पेंच-औ-ख़म निकालते जिंदगी कि शाम हुई |

बुलाती  थीं  रंगीनियाँ  और  शौक  रोकते  थे हमें,
दो का चार करते रहे हम, मनो जिंदगी हिसाब हुई|

शिकायतें इस कदर हमसे जिंदगी को और जिंदगी से हमें 
तंज देते एक दूसरे को , कि जिंदगी इल्ज़ाम हुई |

कोशिशें जारी थी कि किसी ढंग तो संभाल जाए
हर सूरत-ए-हाल में, बद से और बदहाल हुई|

ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई|

जिस्म से रूह तक उतर गई ये कैसी तिशनगी थी
बंद मुकद्दर के मयखाने, जिंदगी खाली जाम हुई|

फिर-फिर लौट आती  रहीं मेरी सदाएं मुझ तक,
बेअसर दुआएँ मेरी, घाटी में गूँजती आवाज़ हुईं|


Tuesday, 25 September 2012

आत्ममुग्धा का आत्मविमोह


और फिर
एक साँझ
देर तक बैठे रहे
हम साथ
बहुत कुछ कहती जाती मैं
और सुनते जाते तुम
अधरों पर जाने कैसा 
मौन धरा था 
तुम्हारे
फिर दूर किसी खाई से जैसे
आती आवाज़ सुनी थी....
"नहीं संभव मिलन हमारा"
लहरों की  छाती पर 
छितराए रंग
औचक ही डूब गए थे,
और मेरे मुख पर बिखरी
स्याही, 
घुल साँझ के रंग में
कर गई उसे थी
सुरमई...
स्तब्ध खड़ी सोचती मैं
क्या मेरे ही दुःख से
हो गई प्रकृति
रंगहीन.....................

Sunday, 23 September 2012

आत्ममुग्धा


उस दिन 
साथ चलते-चलते
छू गया था जब
हाथ तुम्हारा
मेरे हाथ से
कपोलों पर मेरे 
बिखर गया 
सिन्दूर
प्राची ने समेट जिसे
अपनी माँग में सजाया
और साथ-साथ मेरे प्रकृति भी 
हो उठी थी
अरुणिम

हृदय हर्षाया 
तन की पुलक से
हरियाई थी दूब
भावों का अतिरेक 
जल कण बन 
नयन से टपका
और ओस बन ठहर गया
तृण नोक पर

स्पंदित हृदयतंत्री के तार 
झंकृत हो उठा 
संसार 
कुछ न कह कर
सब कुछ कहते 
लरजते होंठ खुले
और
मूक अधरों का 
मुखरित मौन 
कलरव बन फ़ैल गया
चहुँ ओर 
कितने ही भाव 
अनगिनत रंगों के 
उपजे उस पल 
और छिटक गए 
फूल, तितली, इन्द्रधनुष बन 

रंगों की अद्भुत होली 
देख सोचती
मुग्धा मैं
क्या मैंने ही इस प्रकृति को 
कर डाला 
रंगीन ......



Friday, 21 September 2012

गुनाहगार


हज़ार शिकवे तेरे , बेबुनियाद सी शिकायतें
सिर झुकाए सुनते रहे हम, गुनाहगार-से |
काश! दिल में न रख कह देते अपने भी मन की,
तो यूँ न सुलगते भीतर ही भीतर , अंगार-से |

पहल तुम्हारी थी, मुहब्बत  का जो यकीं दिलाया था, 
फिर बेरुखी से हाथ झटक, दामन भी तुमने छुडाया था|
खुदा  बन  के  तुम  फरमान  दिए  जाते  थे
बुत  बन  के  हम खड़े  थे, तेरे  हर  इलज़ाम  पे|

हलफ उठाने को भी थे राज़ी कि मान जाओ तुम  
इस बार जो बिछड़े तो किसी सूरत , जी न पाएंगे 
यकीं तुम्हें न था कि पलट के जाँचते थे तुम 
जान कितनी बची है बाकी,  तेरे जाँ- निसार में   


Monday, 17 September 2012

यकीन


यकीन है तो  कुछ उसकी, वज़ह भी होनी चाहिए
बेवजह ही तुझ पे यकीन, हम किए जाते हैं .

इंतज़ार का दीया भी, बुझ चला है अब तो
ये तो हम हैं जो बुझ- बुझ के भी जले जाते  हैं .

आस की डोर है जो टूट  के भी छूटती ही नहीं
साँस की डोर  पकड़े, मर-मर के जिए जाते हैं.

सुना था दर से तेरे कोई लौटता नहीं खाली
खाली दामन, और अश्क आँखों में लिए जाते हैं 

Sunday, 16 September 2012

प्रतीक्षारत


न मालूम
कितने संकेत,
कितने सन्देश,
लिख भेजे तुम्हें
कभी हवा के परों पर
कभी सागर  की लहरों पर .
कभी सूरज कि किरणों को ,
चाँद की  चांदनी में भिगो .
कभी तितलियों के पंखों से रंग समेट,
इंद्र धनुष की पालकी पर चढ़ा.
ह्रदय का हर अनकहा  भाव
पल-पल डूबती उतराती आस.
लिखा था  मूक मन का  हर मौन
आँखों से मोती सहेजसंवारी कथा
भेजा था हर संदेस इस विश्वास से
कभी तो पहुंचेगा तुम तक
समझ पाओगे तुम, मेरी व्यथा
पर न मालूमकहाँ हुए विलीन
सन्देश मेरे
लहरों के जल में घुले
या हवा के झोंकों में बहे
रात की कालिमा में जा मिले
या रंग बन धरा पर बिखर गए
न पहुँच पाए तुम तक
पर आज भी मैं
प्रतीक्षारत


Thursday, 13 September 2012

क्षितिज



एक सुरमई साँझ
दूर क्षितिज पर 
उदास बैठी धरती ने
हसरत भरी नज़र से 
देख गगन को यूँ कहा ....
हरेक के लिए इस दुनिया में 
है एक क्षितिज 
जहाँ 
हम- तुम मिलते हैं 
पर मैं और तुम 
क्यों नहीं रच पाते 
अपना कोई क्षितिज 
जहाँ तुम 
अपनी विशाल बाहों में 
समेट लो मेरा वजूद 
जहाँ हम मिलते से 
आभासित ही न हो 
वरन
मिल हो जाएँ 
एक 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...
Blogger Tips And Tricks|Latest Tips For Bloggers Free Backlinks