राज़-ए-जिंदगी जानने को, उठाए ही थे कदम
सफर शुरू भी न हुआ था, कि जिंदगी तमाम हुई|
हज़ार झंझटों में उलझी जिंदगी कुछ यूँ बेतरह
कि पेंच-औ-ख़म निकालते जिंदगी कि शाम हुई |
बुलाती थीं रंगीनियाँ और शौक रोकते थे हमें,
दो का चार करते रहे हम, मनो जिंदगी हिसाब हुई|
शिकायतें इस कदर हमसे जिंदगी को और जिंदगी से हमें
तंज देते एक दूसरे को , कि जिंदगी इल्ज़ाम हुई |
कोशिशें जारी थी कि किसी ढंग तो संभाल जाए
हर सूरत-ए-हाल में, बद से और बदहाल हुई|
ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई|
जिस्म से रूह तक उतर गई ये कैसी तिशनगी थी
बंद मुकद्दर के मयखाने, जिंदगी खाली जाम हुई|
फिर-फिर लौट आती रहीं मेरी सदाएं मुझ तक,
बेअसर दुआएँ मेरी, घाटी में गूँजती आवाज़ हुईं|