वे क्षण जो तेरे बिन गुज़रे, खटके मन में बनकर काँटे।
मिलकर भी न मिल पाने का, टूटा जो अरमान लिखूँ।
प्रकृति चतेरी
रोज़ सुबह तूलिका ले अपनी,
सजा देती है आसमानी कैनवास को,
सुंदर नए रंगों से ।
कभी फूलों की लालिमा ले,
मिला देती है उसमें सूरज का सोना,
और उड़ेल देती उसे,
रुई से धुने हुए बादलों पर।
कभी चाँद के रुपहले कुर्ते से,
एक चमकता धागा खींच,
काढ़ देती है कुछ रुपहले बूटे,
आसमान के आँचल पर।
कभी रात का काजल ले धूसर कर देती,
तो कभी नीलम से आभा ले,
नीलाभ कर देती।
किरणों की डोर से बाँध
खींच लेती है ऊपर
क्षितिज में डूबा सूरज का घड़ा ,
और उड़ेल देती है
सोए अलसाये जहाँ पर
एक ठंडी, ताजा, खुशनुमा सुबह
शायद सम्पूर्ण हो तुम
ईश्वर ने तुम्हें ही तो बनाया है
पूरा का पूरा
बाकी सब में छोड़ दी हैं कमियाँ
इसीलिए
सौन्दर्य के मानक बताने का
दूसरों की कमियाँ गिनवाने का
मिला है अधिकार तुम्हें
पूरा का पूरा .....
तभी तो
सौन्दर्य नापने को
पैमाना लिए चलते हो अपनी आँखों में
ईश्वर
जो कोई खरा न उतरे इन मानकों पर
उसकी सरेआम बेइज्ज़ती का
मिल जाता है अधिकार तुम्हें
पूरा का पूरा
बदकारियाँ कुछ एक की काबिज़ हुईं वहाँ
चुप्पी शरीफ़ लबों ने थीं ओढ़ ली जहाँ
हो मुखालिफ झूठ के, आवाज़ तो उठाओ
सच की आवाज़, शोर से कब तक दबे यहाँ।
दूर से हम बैठकर तमाशा देखेंगे अभी
आग अपने घर में है, अब-तक लगी कहाँ
देश की अस्मत से हमको वास्ता ही क्या
ज़िद हमारी पूरी हो, तमाशा देखे ये जहां
झुंड में निकले हो, ताकत का तमाशा है
सच था तो दिखावे की ज़रूरत थी कहाँ।
माना सहना अच्छा है लेकिन
कुछ कह जाना बेहतर है
वसंत के रंग कवित्त के संग