Monday, 31 December 2012

आश्वासन ... अभय का



कम से कम
इस साल तो 
कुछ ऐसा नहीं होगा 

कुछ दरिंदे करेंगे 
इंसानियत का मुँह काला
हैवानियत के अट्टहास पे 
नहीं सिसकेगी 
मानवता 
कम से कम 
शायद 
इस बार तो ऐसा नहीं होगा 

सियासत फिर अपनी 
बेशर्मी का लबादा ओड़
नहीं छिपती फिरेगी 
नपुंसक से बहानों के पीछे 
खोखले वादों के पीछे 
झूठे आँसुओं और संवेदनाओं के पीछे

कम से कम 
शायद 
इस बार तो ऐसा नहीं होगा 

अपने ही देश में 
न्याय की गुहार लगाने पर 
नहीं खानी पड़ेंगी लाठियाँ
अपने ही रक्षकों के हाथों 
नहीं अब घसीटा जायेगा 
लड़कियों को सड़कों पर 
बेगैरती कुछ तो 
गैरत में डूब जाएगी 
शायद इस बार 

शायद
इस साल 
बेखौफ़ होगी जिंदगी 
गुलज़ार होगा जीवन 
सम्मानित मातृशक्ति 
पायेगी निज गौरव 
डरेगा न मन 
बेटियों के बाहर जाने पर 
कुछ आश्वासन दे 
ए नव वर्ष 
कि उल्लसित हो करें 
हम भी तेरा स्वागत 









Sunday, 30 December 2012

मगरूर


गुरुर में हो गाफ़िल, कि दिल नवाजी से, साफ़ बचते हो
मसरूफियत है या कि बेरुखी जो हमें, दरकिनार किए रखते  हो .

पेशानी पे त्योंरियाँ, तल्खी औ तंज जुबां पे हरदम 
ज़माने भर की नाराज़गी, हम पे ही  बयाँ  करते हो

चार दिन की जिंदगानी में क्यूँकर हज़ार शिकवे- गिले
मुहब्बत से मिला करो , दुश्मन से भी अगर मिलते हो .

इस शहर में न मिलेगा,  हम-सा तुम्हें ए दोस्त कोई,
क्यों बेगानों की भीड़ में, दोस्तों का गुमां रखते हो .

बस बच रहा वो ही कि जिसने, ज़रा-सी लचक रखी खुद में 
कि टूट जाओगे चटक के जो न , झुकाने का हुनर रखते हो.

हक किसने दिया हुस्न या कि इश्क को मगरूर होने का 
बिन एक के दूजे की गुज़र, कैसे-कैसे मजाक करते हो 












दिल तो बच्चा है जी.....


सच में
बच्चा ही तो है दिल 

देखा है न आपने 
बच्चों को रूठ जाते 
बस ऐसे ही मुझसे कुछ 
रूठा-रूठा सा है 
मेरी गलती बस इतनी 
कि बड़े प्यार से 
बस.... थोड़ा-सा  
झिडक कर 
समझाया था इसे
पगले! जो तू चाहता है 
कैसे हो पायेगा 
यह दुनिया है 
अपने कानूनों पर चलती है 
तू जो चाहता पाना 
कैसे मिल पायेगा 
नहीं माना 
जिद्दी कहीं का .....
फिर थोड़ा डराया 
देख !
नहीं माना तो 
बहुत पछतायेगा 
ऐसी सज़ा मिलेगी 
जिंदगी भर न भूल पायेगा 
पर दिल तो ......
बच्चा ठहरा 
भला कैसे मानेगा 
कितना ही डराओ,धमकाओ 
पर कहाँ समझ पाते हैं 
जैसे घूम-फिर कर फिर 
बार-बार 
वहीँ आके अटक जाते हैं 
बस वैसे ही 
अड़ा हुआ है
क्या करूँ?
ज्यादा डराने से 
जैसे कुम्हला जाता है 
बच्चों का बचपन 
दिल में डर का साया थामे
कहाँ पनप पाते हैं 
उनके कोमल सपने 
बस ऐसे ही ये दिल भी 
कुम्हला जायेगा 
मासूम-सा बच्चा 
यक-ब-यक 
बड़ा हो जायेगा ...













Thursday, 20 December 2012

कविता नहीं .... डर

(दो दिन से बहुत व्याकुल है मन ..... एकदम स्तब्ध ...... सहसा कोई प्रतिक्रिया कर पाना भी संभव न हुआ ...... लोगों की कविताओं में, विचारों में उनका आक्रोश पढ़ा ...... पर मेरा मन तो कहीं भीतर तक सिहर गया है )


नहीं
आज कविता नहीं 
अपना डर लिख रही हूँ 
वज़ह ...............
कई सारी हैं 
पर सबसे बड़ी 
एक जवान बेटी की माँ हूँ
(न न 
गलत मत समझिए 
रुढिवादी नहीं हूँ
कि बेटी को बोझ समझूँ )
और दूसरी 
 देश की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहती हूँ 
रोज सुबह बेटी को जाना है 
कॉलेज
कॉलेज जो है दिल्ली में
बहुत फ़क्र था अब तक
कि दिल्ली के अच्छे कॉलेज में पढ़ती है 
पर आज 
हालात बदल गए हैं
फ़क्र की जगह लेली है 
एक अनाम से डर ने  
अब घर से निकल गाड़ी में बैठने तक 
अकेली होगी वह 
रास्ता भले ही दो कदम का हो 
पर होगी तो अकेली ही 
फिर मेट्रो पर गाड़ी पार्क कर 
स्टेशन तक भी अकेले ही जाना होगा 
और सारा दिन कॉलेज में 
फिर वापसी................
उसे तो समझाई हैं 
बहुत सारी
ऊँच-नीच, सावधानी की बातें ,
पर  खुले आम घूम रहें हैं 
जो दरिंदे 
उन्हें समझाने वाला है कोई?

क्या करूँ 
हरदम साथ रहना भी तो 
संभव कहाँ 
बड़े फ़क्र से कहा था 
पीछे नहीं रहेगी बेटी मेरी 
पुरुषों के कंधे से कंधा मिला 
चलेगी..... सामना करेगी हर चुनौती का 
आज अपना ही विश्वास 
क्यों डगमगाता सा प्रतीत हो रहा 
कहीं गलती तो नहीं की है..
क्या सुरक्षित है वह
दरिंदों से भरी दिल्ली में ........
आशा .........
वह क्या है ?
अब तो सहारा है बस 
आस्था का 
क्या कहा?
कानून और पुलिस पर आस्था! 
कैसा मजाक करते हैं ?
...............
अगर इतनी ही सक्षम होती 
पुलिस या फिर कानून
तो क्या हो पाता 
दरिंदगी का 
यह नंगा नाच .........
'डर'
क्या यही नियति बन जायेगी 
लड़कियों की
माँओं की ..........













Tuesday, 11 December 2012

कौन तुम?


हे रहस्यमयी!
कौन तुम?

सद्यस्नात 
गीले केश झटक तुमने 
बिखेर दिए 
तुहिन हीरक कण
अपने हरित आँचल पर
नत मुख बैठ 
अब चुनतीं 
स्वर्णिम अंशु उँगलियों से 

हे स्वर्णिमा!
तुम कौन?

रवि बिंदिया
भाल पर सजा
जब निहारती 
सरित मुकुर में 
हो अभिभूत 
निज सौंदर्य से 
बिखर-बिखर जाती 
लाज की लाली 
मुखमंडल पर

कौन तुम ?
हे रूपगर्विता !

काली अलक 
सँवार तारों से 
कर अभिसार 
बैठी चन्द्र पर्यंक
किसकी प्रतीक्षारत

हे अनिन्द्य सुंदरी !
तुम कौन?

मंद मलयानिल से  
हटा कुहासे का झीना आँचल 
 अनावृत्त 
दीप्त देह तुम्हारी 
जगमग जग सारा 
बिखर गया हर ओर 
आलोक तुम्हारा 

हे आलौकिक आलोकमयी 
तुम कौन?






Tuesday, 4 December 2012

पैगाम

1.
आज हौले से मेरा नाम कहीं, तेरे लबों पे चला आया है,
सरसराहट ने हवा की ये पैगाम.हम तलक पहुँचाया है.


याद  करके  मुझे, तूने  कहीं,  ठंडी  आह  भरी  है
दरिया के दामन पे बिछी,चांदनी ने ये  पैगाम दिया है.


सूरज की तपिश में थी, तेरे  जिस्म की हरारत 
लिपट के किरणों ने दामन से,तेरा अहसास दिया है .


कल तलक गैर था जो, आज है हमनवां मेरा 
तूने  न सही,  हमने ये हक़  खुद को दिया है 


2.



सरसराहटों में हवा की थी
एक मदहोश  सी खनक,
भूले  से  कहीं तूने
मेरा नाम लिया होगा

हिचकियाँ हैं कि
रुकने को तैयार नहीं हैं,
ज़िक्र मेरा कहीं तूने
सरेआम किया होगा .

शाख-ए-गुल लिपट कदमों से  
रोकती थी जाने से हमें
शायद जाते - जाते तूने 
मुड़ के हमें देख लिया होगा. 

पेश कदमी को तो तूने भी 
कोशिश हर बार  की 
हर बार किसी हिचक ने 
जुबां को रोक लिया होगा. 





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