गति और ठहराव
1.
गति का वरदान तुम्हें मैं,
स्थिरता का शाप झेलती
भँवर पड़े तेरे पैरों में
मैं ठहराव की आस देखती
मैं जड़ तुम थे जंगम
कैसे संभव होता संगम
या मुझमें उद्भव हो गति
या तुझमें ठहराव देखती
2.
नदी थी मैं
मिला था
गति का वरदान मुझे
नियति मेरी
किनारे से तुम
बस वहीँ रुके रहे
मै बढ़ी, बही, छलकी, मचली
साथ तुम्हे ले चलने को
व्याकुल था मन
पर
तुम न चले
चलना नियति न थी तुम्हारी
पर साथ मेरा देने को
कर लिया तुमने अपना
विस्तार अनंत
जहाँ तक तुम चली
साथ देते रहे मेरा
पर
स्थिर बन