सोचती हूँ
कह दूँ
तुम मेरी जिंदगी के सफहे पर लिखी
कोई तहरीर तो नहीं
वक्त-ए-तन्हाई में
उबकर
या कुछ बेख्याली में
यूँही
हाशियों पर जो खींच दी जाती है
कोई अनगढ़-सी इबारत
या कुछ बेमतलब सी लकीरें
तुमको पढूँ तो कैसे
कोई मतलब निकालूं तो कैसे
कि होश में तो तुम्हे लिखा ही नहीं
और अब
बार बार बाँचती तुम्हें
जतन करती हूँ
कोई मतलब निकलने का
कि तुम हो तो मेरी जिंदगी की किताब में
पर क्या तआर्रुफ़ कराऊं तुम्हारा
सोचती हूँ