Tuesday, 26 February 2013

अनगढ़-सी इबारत




सोचती हूँ 
कह दूँ 
तुम मेरी जिंदगी के सफहे पर लिखी 
कोई तहरीर तो नहीं 
वक्त-ए-तन्हाई में 
उबकर 
या कुछ बेख्याली में
यूँही
हाशियों पर जो खींच दी जाती है
कोई अनगढ़-सी इबारत
या कुछ बेमतलब सी लकीरें
तुमको पढूँ तो कैसे
कोई मतलब निकालूं तो कैसे
कि होश में तो तुम्हे लिखा ही नहीं
और अब
बार बार बाँचती तुम्हें
जतन करती हूँ
कोई मतलब निकलने का
कि तुम हो तो मेरी जिंदगी की किताब में
पर क्या तआर्रुफ़ कराऊं तुम्हारा
सोचती हूँ

Sunday, 24 February 2013

नाराज़गी........कुछ इस तरह




1.
मुख़्तसर सी मुलाकात थी
अजीब सा ही था बहाना
पहली दफ़ा मिल के वो बोले 
बस यहीं खत्म फ़साना .............

2.
कुछ बेजां सी ख्वाहिशें 
कुछ गुस्ताख से अंदाज़ 
हक़- ए- इंकार से हमारे  
क्यूं कर उन्हें एतराज़ 

3.
दो घड़ी पास बैठ ज़रा 
कुछ दिल की कहते -सुनते 
रूहों के रिश्तों को न यूँ 
जिस्म की दीवारों में चुनते

4.
इश्क में खुद को मिटाने का फन आ न सका ,
जान दे के उसे मनाने का फन आ न सका

घर की दहलीज के उस तरफ थी दुनिया उसकी,
मौज-ए-दुनिया से टकराने का फन आ न सका.

उल्फत की नई मंजिलें पुकारती थीं उसे 
ज़ख्म दिल के दिखलाने का फन आ न सका..

Friday, 22 February 2013

मयकदा



मशविरा कोई तो दो यारों कि मुश्किल बड़ी है '

इधर कूचा - ए - यार है, उधर मस्जिद खड़ी है 


पी के जो ज़रा बहके कि सबक पढ़ाने लगी दुनिया 

होश में रहने को यारों, ज़िंदगी बहुत ही  बड़ी है 


रात की खुमारी ही उतरी न थी अब तक कि

सुबह तल्ख़ सच्चाई फिर रु-ब-रु खड़ी है 


दो घूँट ही चढ़ाई थी कि छिपते फिर रहे थे हम 

क्या करें जनाब-ए-शेख की, नाक बहुत बड़ी है .


मैखाने के दरवाजे पे, दो पल क्या ज़रा ठहरे,

त्योरियाँ ज़माने भर की , हम पे चढ़ी हुई हैं 


मयकश को सहारा दे ज़रा, घर तलक क्या पहुँचाया 

बदनामियाँ ज़माने भर की अब, दरवाज़े पे आ खड़ी हैं ..

Tuesday, 19 February 2013

खयाल यूँ ही


1.

हरेक बार वो, हरेक बात पे खफा होके  , 
तीर से तंज का तोहफा हमें देता है 
नादानी की उसकी ज़रा हद तो देखो 
जिस दिल में बसे, उसे ही तोड़ देता है






2.

कितनी बेमुरव्वती से ताकीद की थी उसने 
जाना है तो जाओ फिर लौट के मत आना 
उसके जाते हुए क़दमों के निशां देखते हम खड़े थे 
कूचा-ए-यार के सिवा कहाँ अपना कोई ठिकाना 








3.
बेसाख्ता ही निकल गया उसका नाम लबों से 
हमने तो परस्तिश में खुदा की हाथ अपने उठाए थे ,
काफिर बना गया फिर तसब्बुर उस बुत का,
आँखे बंद कर जब, सजदे में सर अपना झुकाए थे


4.

महफिल-ए-शमा की रौनक थी शबाब पे, 

इक जूनून-सा था परवानों की जमात में, 
कौन उस बेदर्द हुस्न के हुज़ूर में जाँ देकर 
नाम दाखिल करवाता दीवानों के दीवान में .
5.
इन्तेज़ार का दिन ढलने चला था ,
उम्मीद की शम्मा को जलाया हमने 
कतरा-कतरा मोम बनके पिघलती रहीं हसरतें दिल में 
आखिरी साँस इधर शमा ने ली, उधर दिन निकल आया .

Saturday, 16 February 2013

रात और दिन


1.
चाँद किरण की सलाइयों पर 
हसरतों के धागे से 
उम्मीद का रुपहला स्वेटर 
बुनती रही रात 
भोर की पहली किरण के साथ
दिन ने आते ही 
उस रुपहले ख्वाब को 
असलियत का 
बदरंग - सा 
जामा पहना दिया 
2. 

धीरे- धीरे ढल रहा था 
रात का शबाब  
खिन्न मन से 
यहाँ-वहाँ बिखरे 
अपने तारों को समेटती 
बाँध रही 
अपनी पोटली में 
दिन, क्षितिज पर खड़ा 
देखता रहा कुछ देर , 
फिर यूँ कहने लगा 
क्यों समेटती हो इन तारों को 
ला, मुझे अपनी ये सौगात
उधार देजा 
और , रात ने 
बिखेर दिए तारे
सारे के सारे 
जा सजे 
हरी घास पर
और जगमगाने लगी 
धरा 

3.
सुबह से सांझ तक 
करता रहा सफर 
कुछ क्लांत, कुछ मलिन 
उदास-सा दिन 
अपना मुरझाया चेहरा 
रात के नरम सीने में छिपा 
निढाल सा पड़ा रहा 
न जाने कब तक 
और रात ने अपने
शबनमी लब
दिन की जलती आँखों पे रख 
उसकी सारी 
तपन हर ली ..... 

4.
थी कुछ बदगुमानी में रात 
कुछ तल्खी, कुछ तंज 
और कुछ अकड़ के साथ 
यूँ कहने लगी दिन से 
रात भर सपने आँखों में सजाती मैं
चाँद की दुधिया किरण 
सितारों से उन्हें 
जगमगाती मैं
तू निष्ठुर आता है 
तेज रोशनी से अपनी 
आँखें चकाचौंध कर 
स्वपनिल आँखों से
सपने छीन ले जाता है......
कुछ देर तो चुप रहा फिर 
मंद स्मित, कुछ हास के साथ 
रात कुछ यूँ बोला दिन 
सपने तो आँखों में सजाती है तू  
ख़्वाबों के पर लगा कर 
दूसरी दुनिया में ले जाती है तू 
अरी नादान !
बस इसी बात का तुझे मान ?
सपनों को तेरे 
सच्चाई के धरातल पर उतारता मैं 
सच कर पाने का इन्हें  माद्दा
जिस्म में पालता मैं 
गर न रोशनी मेरी 
इंसानी नींद खुलवाए 
तो स्वप्न सारे 
कमल में बंद भंवरे से 
कुम्हलाएँ, मर जाएँ 












Sunday, 10 February 2013

तलाश

कभी दरबदर हम, अनजान मंजिल, कभी गुमशुदा थे रास्ते 
क्या ढूंढते थे, क्या मिला थे न जाने हम किस तलाश में ..



हर शख्स यहाँ 
किसी न किसी  
तलाश में 
भटकता फिर रहा 
अनवरत 
अनजान राहों पर 
कोई सुकून की तलाश में 
फिरता बेचैन 
किसी ने शांति को खोजते 
खो दिया चैन 
कोई बंधन सब तोड़ 
प्यार तलाशने निकला 
कोई बुतों को तोड़ 
तो कोई पत्थर तराश 
खुदा तलाशने निकाला 

खुशी की तलाश में कभी 
हँसी किसी ने खोई 
आशियाँ की तलाश में 
दरबदर कोई 
बस यूँ ही
अनजान चाहत 
कहाँ दिल को राहत 
बेवज़ह भटकते 
जिंदगी की सूनी गलियों में
बाकी रह जाती है तो बस 
तलाश 




Friday, 8 February 2013

मौसम या तुम


आज सुबह
गुनगुनी धूप की
नरम चादर लपेट
पड़ी रही न जाने कब तक
तेरी यादों की आगोश में
दिल को मिलता रहा
गुनगुना सा 
सुकून


बारिश की
पहली बूँद की
गीली सी छुअन
गालों पर
थरथरा से गए अहसास
याद आ गई तुम्हारी
वो अहसासों से भीगी
पहली छुअन


फिज़ा में उड़ते
कोहरे ने
समेट लिया मेरा वज़ूद
अपने आगोश में
साँसों से दिल तक उतर गई
कोहरे की कोरी खुशबू
पुलक उठी मैं जैसे
पाकर तेरे बदन की
महक




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