Thursday, 21 December 2017
विदेह
आकर्षित करता है सदा
देह त्यज
विदेह हो जाना
सीमाओं के पार
वर्णन के परे
वचनों के जाल से मुक्त
अनिर्वचनीय, अवर्णनीय,
असीमित बन जाना
एक शून्य से
विस्तार अनंत तक
तृषा, क्षुधा, कामना,
दृश्य, गंध, स्पर्श ....
इन्द्रियों से मुक्त
चिंतन अनंत बन जाना
कुछ पल, दिन, वर्षों से
काल अनंत बन जाना
आकर्षित करता है .....
~~~~~~~~~~~~~
shalini rastogi
Wednesday, 20 December 2017
सतरंगी है इश्क़ तेरा
जिस्मानी काले से
रूहानी सफ़ेद तक,
हार रंग में सजा है
इश्क़ तेरा
कभी सूफियाना बन
हरा कर देता है दिल की ज़मीं को,
कभी पूजन बन
केसरिया मन कर जाता है|
कहीं मिलन का लाल,
कहीं जुदाई का धूसर,
कभी जलन में जामुनी रंग जाता है
इश्क़ तेरा
...
कहीं आसमानी बन
सागर औ फ़लक तक बिखर जाता है,
कभी गुलाबी मुस्कान बन
होंठों में सिमट आता है,
कभी सितारों की चमक लिए
आँखों में झिलमिलाता है,
कहीं सरसों की पीली बाली-सा
दिल को सरसराता है,
चूनर की धानी धनक से
पायल की रुपहली खनक तक,
हर रंग में नज़र आता है
इश्क़ तेरा
हाँ, सतरंगी है इश्क़ तेरा ....
शालिनी रस्तौगी
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Tuesday, 3 October 2017
हाइकू
1.
व्याकुल मन
लगे अनगिनत
जिह्वा बंधन|
2.
छाया वसंत
विरहन के मन
पीर अनंत|
3.
जग समझा,
सजन हरजाई
समझत नाहीं|
4.
मुख दर्पण
प्रतिविम्बित होता
मन आँगन|
5.
पीर पराई
समझे जग नाहीं
हँसी उड़ाई|
6.
छिन्न मस्तक
माँगते प्रतिशोध
वीरों के शव|
7.
अपने हाथ
निज शरीर पर
करें आघात|
8.
अलगाववाद
विष बन के फैला
घोर विषाद|
9.
पर भाषा से
निज भाषा की हार
हैं शर्मसार|
10.
भष्टाचरण
मिटे समूल तब
हो जागरण|
11.
राष्ट्र उत्थान
पूर्ण विकास का
हो आह्वान|
12.
हाथ बढ़ा के
माँगते सब हक़
न जाने फ़र्ज़|
व्याकुल मन
लगे अनगिनत
जिह्वा बंधन|
2.
छाया वसंत
विरहन के मन
पीर अनंत|
3.
जग समझा,
सजन हरजाई
समझत नाहीं|
4.
मुख दर्पण
प्रतिविम्बित होता
मन आँगन|
5.
पीर पराई
समझे जग नाहीं
हँसी उड़ाई|
6.
छिन्न मस्तक
माँगते प्रतिशोध
वीरों के शव|
7.
अपने हाथ
निज शरीर पर
करें आघात|
8.
अलगाववाद
विष बन के फैला
घोर विषाद|
9.
पर भाषा से
निज भाषा की हार
हैं शर्मसार|
10.
भष्टाचरण
मिटे समूल तब
हो जागरण|
11.
राष्ट्र उत्थान
पूर्ण विकास का
हो आह्वान|
12.
हाथ बढ़ा के
माँगते सब हक़
न जाने फ़र्ज़|
Saturday, 30 September 2017
प्राण वायु
प्राण वायु आदर्श की, होती दिन-दिन क्षीण|
मानवता का दम घुटा, बढ़ा स्वार्थ संकीर्ण||
बढ़ा स्वार्थ संकीर्ण, हो किस पर क्या विश्वास|
देते थे जो प्राण, छीनते आज वे श्वास||
नैतिकता औ मूल्य, घायल बिंध लालच बाण|
प्राण-वायु हर गई, अबोध शिशुओं के प्राण ||
मानवता का दम घुटा, बढ़ा स्वार्थ संकीर्ण||
बढ़ा स्वार्थ संकीर्ण, हो किस पर क्या विश्वास|
देते थे जो प्राण, छीनते आज वे श्वास||
नैतिकता औ मूल्य, घायल बिंध लालच बाण|
प्राण-वायु हर गई, अबोध शिशुओं के प्राण ||
Thursday, 28 September 2017
माया
माया को ठगिनी बता, कहते तुम दो छोड़|
मुख दौलत नदी का निज, ओर रखा है मोड़||
ओर रखा है मोड़, साधु बन कर हैं फिरते|
रहे धरम की आड़, दुष्करम सारे करते||
कितनों को ठग लिया, मोक्ष दिखला भरमाया|
काम, क्रोध, धन लोभ, न छूटी इनसे माया||
मुख दौलत नदी का निज, ओर रखा है मोड़||
ओर रखा है मोड़, साधु बन कर हैं फिरते|
रहे धरम की आड़, दुष्करम सारे करते||
कितनों को ठग लिया, मोक्ष दिखला भरमाया|
काम, क्रोध, धन लोभ, न छूटी इनसे माया||
Monday, 25 September 2017
मज़ाक अच्छा है|
मैं कहूँ जो, वो गलत, तेरा बयान अच्छा है|
जाने कैसे तुम लगाते हो, हिसाब अच्छा है|
महफ़िल में चर्चा तर्के ताल्लुक की अपने
आजकल मेरे रकीबों का मिजाज़ अच्छा है|
रक्स महफ़िल में ठहाकों के बीच सुना है,
याद हम तुमको बहुत आए, मज़ाक अच्छा है|
जाने कैसे तुम लगाते हो, हिसाब अच्छा है|
महफ़िल में चर्चा तर्के ताल्लुक की अपने
आजकल मेरे रकीबों का मिजाज़ अच्छा है|
रक्स महफ़िल में ठहाकों के बीच सुना है,
याद हम तुमको बहुत आए, मज़ाक अच्छा है|
अधूरी
अधूरी ही रही मैं
न कभी पूर्ण हो पाई....
बादल, हवा, नदी आकाश, धरा
सब कुछ तो बनना चाहा था ....
सब कुछ बनी
पर आधी-अधूरी ....
बादल तो बनी पर अपना सर्वस्व न बरसा पाई|
हवा बनी पर वर्जनाओं के पहाड़ न लाघें|
नदी बन बही पर जीवन के समतल में ...
मंथर-मंथर ...
भावों के आवेग में ...
न किनारे तोड़ बह पाई|
आकाश बन कर भी मेरा फैलाव रहा
बस एक मुट्ठी ...
धरा -सी सब जज़्ब भी कहाँ कर पाई ...
हाँ सब कुछ तो बनी
पर अधूरी -अधूरी
न कभी पूर्ण हो पाई....
बादल, हवा, नदी आकाश, धरा
सब कुछ तो बनना चाहा था ....
सब कुछ बनी
पर आधी-अधूरी ....
बादल तो बनी पर अपना सर्वस्व न बरसा पाई|
हवा बनी पर वर्जनाओं के पहाड़ न लाघें|
नदी बन बही पर जीवन के समतल में ...
मंथर-मंथर ...
भावों के आवेग में ...
न किनारे तोड़ बह पाई|
आकाश बन कर भी मेरा फैलाव रहा
बस एक मुट्ठी ...
धरा -सी सब जज़्ब भी कहाँ कर पाई ...
हाँ सब कुछ तो बनी
पर अधूरी -अधूरी
झूठ के पाँव
वज़नदार होते हैं
झूठ के पाँव,
जब भी मन में चलता
रौंदता निकल जाता है....
निश्छल भोले-भाले भावों को |
और चेहरे की मासूमियत पर
छोड़ जाता है छाप
अपने कदमों की|
और मलिनता की कालिख से
विद्रूप कर देता है
वो निश्छलता|
इसके बोझ तले दबी आत्मा
छटपटाती है,
मुक्त होने को अकुलाती है|
झूठ पनपता ही है
ज़मीर को कुचलकर,
आत्मा को मसलता
आखिर पाँव झूठ के
होते हैं वज़नदार |
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तोगी
झूठ के पाँव,
जब भी मन में चलता
रौंदता निकल जाता है....
निश्छल भोले-भाले भावों को |
और चेहरे की मासूमियत पर
छोड़ जाता है छाप
अपने कदमों की|
और मलिनता की कालिख से
विद्रूप कर देता है
वो निश्छलता|
इसके बोझ तले दबी आत्मा
छटपटाती है,
मुक्त होने को अकुलाती है|
झूठ पनपता ही है
ज़मीर को कुचलकर,
आत्मा को मसलता
आखिर पाँव झूठ के
होते हैं वज़नदार |
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तोगी
Tuesday, 29 August 2017
पछताती हो क्यों...
हाँ, सही कहा कि
ग़र करती हो तो पछताती हो क्यों...?
अपने पहनावे पर
लोगों के व्यंग्यबाण सुन
तुम शर्म से गढ़ जाती हो क्यों...?
तुम्हारे कपड़ों की लंबाई देख
तुम्हें करैक्टर सर्टिफिकेट देने वालों की
बातों से तुम घबराती हो क्यों?
पछतावा तो हो उन आंखों को
जो कभी तीर, कभी भाले बन
तुम्हारे ज़िस्म में उतर जाती हैं।
पछतावा हो उस बेगैरत नज़र को
जो स्कैनर बन, तुम्हारे लिबास के भीतर
एक देह की कल्पना मात्र से
लार टपकाने, कभी लपलपाने लगती है।
पछतावा हो उस तथाकथित सभ्यता को
जहां अँधेरा होते ही
मर्दाना ज़िस्म पहने कुछ इंसान
जनाने जिस्मों-गोश्त की बू सूँघते,
वहशी दरिंदे बन घूमते हैं।
हाँ, तुम्हारे छोटे कपड़े, पारदर्शी लिबास ,
भड़काते हैं उन्हें।
पर
किसी घर के पालने में सोई, कहीं स्कूल जाती
गली और पार्कों में खेलती
वे छोटी-छोटी अबोध बच्चियाँ
क्या दिखा कर उत्तेजित करती हैं उन्हें?
प्रौढ़ और वृद्ध स्त्रियों के
झुर्रियों से भरे ज़िस्म
कैसे उनके अवयवों में रक्त संचार बढ़ा देते हैं?
कैसे फटे-चीथड़े पहने,
धूल-मिट्टी से अटी देह और बिखरे बाल लिए
विक्षिप्ता हामिला हो जाती है?
तो , तुम ही क्यों पछताती हो
कि तुम्हारा लिबास उकसाता है उन्हें
दोष तो उनका है जिन्हें औरत में
एक इंसान नहीं
सिर्फ ज़िस्म नज़र आता है।
ग़र करती हो तो पछताती हो क्यों...?
अपने पहनावे पर
लोगों के व्यंग्यबाण सुन
तुम शर्म से गढ़ जाती हो क्यों...?
तुम्हारे कपड़ों की लंबाई देख
तुम्हें करैक्टर सर्टिफिकेट देने वालों की
बातों से तुम घबराती हो क्यों?
पछतावा तो हो उन आंखों को
जो कभी तीर, कभी भाले बन
तुम्हारे ज़िस्म में उतर जाती हैं।
पछतावा हो उस बेगैरत नज़र को
जो स्कैनर बन, तुम्हारे लिबास के भीतर
एक देह की कल्पना मात्र से
लार टपकाने, कभी लपलपाने लगती है।
पछतावा हो उस तथाकथित सभ्यता को
जहां अँधेरा होते ही
मर्दाना ज़िस्म पहने कुछ इंसान
जनाने जिस्मों-गोश्त की बू सूँघते,
वहशी दरिंदे बन घूमते हैं।
हाँ, तुम्हारे छोटे कपड़े, पारदर्शी लिबास ,
भड़काते हैं उन्हें।
पर
किसी घर के पालने में सोई, कहीं स्कूल जाती
गली और पार्कों में खेलती
वे छोटी-छोटी अबोध बच्चियाँ
क्या दिखा कर उत्तेजित करती हैं उन्हें?
प्रौढ़ और वृद्ध स्त्रियों के
झुर्रियों से भरे ज़िस्म
कैसे उनके अवयवों में रक्त संचार बढ़ा देते हैं?
कैसे फटे-चीथड़े पहने,
धूल-मिट्टी से अटी देह और बिखरे बाल लिए
विक्षिप्ता हामिला हो जाती है?
तो , तुम ही क्यों पछताती हो
कि तुम्हारा लिबास उकसाता है उन्हें
दोष तो उनका है जिन्हें औरत में
एक इंसान नहीं
सिर्फ ज़िस्म नज़र आता है।
Thursday, 3 August 2017
कोयला है, जितना पौंछो, काला ही नज़र आएगा।
आइना थोड़े ही है जो पौंछ कर चमक जाएगा।
कोयला है, जितना पौंछो, काला ही नज़र आएगा।
है बसी रग-रग में हरकत, फितरती है उसका मिजाज़।
तुमने क्या सोचा कि समझाने से वो बदल जाएगा।
बाँध तूफां को अपने पालों में चलता है जो।
वो सफ़ीना आँधियों के रुख से क्या दहल जाएगा।
गर्दिशों ने है सँवारा, ठोकरों ने है सँभाला ।
काँच समझा है क्या उसे, जो छूते ही बिखर जाएगा।
एक दूजे की टाँग को जकड़े खड़े हैं लोग देखो।
देखते हैं कौन, किससे, कैसे अब आगे निकल पाएगा।
~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
कोयला है, जितना पौंछो, काला ही नज़र आएगा।
है बसी रग-रग में हरकत, फितरती है उसका मिजाज़।
तुमने क्या सोचा कि समझाने से वो बदल जाएगा।
बाँध तूफां को अपने पालों में चलता है जो।
वो सफ़ीना आँधियों के रुख से क्या दहल जाएगा।
गर्दिशों ने है सँवारा, ठोकरों ने है सँभाला ।
काँच समझा है क्या उसे, जो छूते ही बिखर जाएगा।
एक दूजे की टाँग को जकड़े खड़े हैं लोग देखो।
देखते हैं कौन, किससे, कैसे अब आगे निकल पाएगा।
~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
Tuesday, 25 July 2017
हसरत नई हर रोज़ ही मचलती तो है
इस मोड़ से इक राह भी गुजरती तो है
दिल से तेरे हम तक जो पहुँचती तो है .
किस्मत तो किस्मत है, यकीं न इस पे करना
किस्मत हरेक की नए रंग बदलती तो है
सिर लाख कुचलो दिल में उठती हसरतों का पर
हसरत नई हर रोज़ ही मचलती तो है
कूँचा ए मैकदे से गुज़ारना संभल के तुम
गुजरो इधर से जब नीयत बहकती तो है .
लाचारियों की राख के अन्दर दबी हुई
आक्रोश की इक चिंगारी सुलगती तो है
इन्तेहा जुल्मों की ये देख अपनी जात पे
भीतर ही भीतर ये जमीं दहलती तो है .
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
(चित्र गूगल से साभार)
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
(चित्र गूगल से साभार)
Monday, 24 July 2017
विद्रोही स्वर
मन
की खामोशियों को तोड़
विद्रोही
हो उठते हैं स्वर|
रगों
में लहू के साथ
दौड़ती
चुप्पी के विरुद्ध
आवाज़
उठाना चाहते,
हर
बंधन को काट
मुक्त
हो
विद्रोह
करना चाहते स्वर|
चेतना
के अदृश्य
बंधन
से मुक्त हो
करना
चाहते अनर्गल प्रलाप |
मिथ्या
संभ्रांतता के
जाल
से निकल
उच्छृंखल
हो जाना चाहते
विद्रोही
स्वर|
मज़ाक अच्छा है
जो कहूँ मैं वो गलत, तेरा बयान अच्छा है।
जाने कैसे तुम लगाते हो, हिसाब अच्छा है।
जाने कैसे तुम लगाते हो, हिसाब अच्छा है।
रक्स, महफ़िल, मय, हँसी के दरमियाँ सुना है ,
याद हम तुमको बहुत आए मज़ाक अच्छा है।
याद हम तुमको बहुत आए मज़ाक अच्छा है।
महफिलों में चर्चा तर्के ताल्लुक का है अपने,
आजकल मेरे रक़ीबों का मिज़ाज अच्छा है।
~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
आजकल मेरे रक़ीबों का मिज़ाज अच्छा है।
~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
Sunday, 2 July 2017
Friday, 30 June 2017
सवैया गायन (video)
(आज सूरजभान डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल , वसंतकुंज, दिल्ली में तीन दिन की शिक्षण संवर्धन कार्यशाला में शिक्षण संवर्धन कार्यशाला के दौरान कुछ हल्के फुल्के पल )
रस प्रीत सखी सब सूख गया, मरुभूमि बनी मन भू सगरी|दिन-रैन झरे अँखियाँ जलधार, रहा मन शुष्क, कहाँ रस री|
मन अंकुर प्रीत फलै-पनपे, मुरझाय रहा सगरा वन री|
बदरा बन आस-निरास ठगें, झलकें, छिप जाएँ करें छल री|
Tuesday, 27 June 2017
पुर्ज़े कागज़ के नहीं, अर्ज़ियाँ हैं|
फैंक दीं तुमने जो बेकार समझ के
पुर्ज़े कागज़ के नहीं, अर्ज़ियाँ हैं|
ये जो तुम अहसां दिखा के कर रहे हो,
प्यार तो नहीं तुम्हारी खुद्गार्ज़ियाँ हैं|
कारनामें जो कल किए थे तुमने,
आज अखबारों की वो सुर्खियाँ हैं|
ज़िम्मेदारी से अभी नावाकिफ़ हो
ज़िन्दगी में अभी बेफिक्रियाँ हैं|
बाप की नज़रें जो धुंधलाईं ज़रा,
बढ़ गई बेटे की गुस्ताखियाँ हैं|
फ़िक्र समझते रहे जिसको हम,
दरअसल वो तेरी फिरकियाँ हैं|
पुर्ज़े कागज़ के नहीं, अर्ज़ियाँ हैं|
ये जो तुम अहसां दिखा के कर रहे हो,
प्यार तो नहीं तुम्हारी खुद्गार्ज़ियाँ हैं|
कारनामें जो कल किए थे तुमने,
आज अखबारों की वो सुर्खियाँ हैं|
ज़िम्मेदारी से अभी नावाकिफ़ हो
ज़िन्दगी में अभी बेफिक्रियाँ हैं|
बाप की नज़रें जो धुंधलाईं ज़रा,
बढ़ गई बेटे की गुस्ताखियाँ हैं|
फ़िक्र समझते रहे जिसको हम,
दरअसल वो तेरी फिरकियाँ हैं|
Saturday, 24 June 2017
रंगों की पत्रकारिता
आप रंगों की पत्रकारिता करते रहिए।
प्रत्येक रंग पर
किसी राजनैतिक दल का
ठप्पा लगाइए
और फिर रंग से जोड़कर
घटनाओं को मनचाहा जामा पहनाइए।
रंगों के धर्म बताइए
एक रंग को दूसरे का विरोधी बताकर
आपस में और रंगों से
लड़ने के लिए उन्हें उकसाइए।
फिर वो एक रंग
जो जमीन पर बहे
उस रंग को लेकर फिर हाहाकार मचाइए।
किसी रंग को कभी चाटुकारिता का
तो किसी को आक्रामकता का
पैरोकार बताइए।
आखिर ..... ऐसे ही तो कोई धर्मनिरपेक्ष नहीं बन जाता।
प्रत्येक रंग पर
किसी राजनैतिक दल का
ठप्पा लगाइए
और फिर रंग से जोड़कर
घटनाओं को मनचाहा जामा पहनाइए।
रंगों के धर्म बताइए
एक रंग को दूसरे का विरोधी बताकर
आपस में और रंगों से
लड़ने के लिए उन्हें उकसाइए।
फिर वो एक रंग
जो जमीन पर बहे
उस रंग को लेकर फिर हाहाकार मचाइए।
किसी रंग को कभी चाटुकारिता का
तो किसी को आक्रामकता का
पैरोकार बताइए।
आखिर ..... ऐसे ही तो कोई धर्मनिरपेक्ष नहीं बन जाता।
Thursday, 22 June 2017
यूँ अचानक आज इक मिसरा हुआ|
इश्क पर ज्यों ज्यों कड़ा पहरा हुआ|
रंग इसका और भी गहरा हुआ|
कह रहे थे तुम कि गुनती जाती मैं|
यूँ अचानक आज इक मिसरा हुआ|
मुस्कुराते तुम कि झड़ते जाते गुल|
चुन रही थी मैं अजी गजरा हुआ|
यूँ रुका आँसू पलक
की कोर पर ,
फूल पर शबनम का कण ठहरा हुआ|
चाह कर भी कह न पाए राज़े-दिल,
इस जुबां पर लाज का पहरा हुआ|
ज़िन्दगी को रू-ब-रू पाया कभी,
यूँ लगा कि मीत हो बिसरा हुआ|
नदिया के जैसी रवानी चाहिए,
सड़ने लगता आब है ठहरा हुआ|
कौन समझाए किसे, फुरसत कहाँ,
घर बुजुर्गों के बिना बिखरा हुआ|
पीछे कमरे में पड़े माँ-बाप हैं,
ज्यों कबाड़ या कि फिर कचरा हुआ|
सुनते थे इन्साफ है अंधा मगर,
साथ में शायद है अब बहरा हुआ|
था विवश कर्जे से पहले ही कृषक
मार से मौसम की अब दुहरा हुआ|
प्रश्न पूछते डरता है मन
प्रश्न पूछते डरता है मन
कि उत्तर मिला ... न मिला!
अगर मिला भी
और मन के अनुकूल न हुआ तो ?
हाँ, उत्तर तो चाहता है
पर सत्य को ...
न सुनना चाहता
न स्वीकारना |
चाहता तो बस अनुकूलता
प्रतिकूलता से घबराता है
इसलिए
प्रश्न पूछते डरता है मन...
कि उत्तर मिला ... न मिला!
अगर मिला भी
और मन के अनुकूल न हुआ तो ?
हाँ, उत्तर तो चाहता है
पर सत्य को ...
न सुनना चाहता
न स्वीकारना |
चाहता तो बस अनुकूलता
प्रतिकूलता से घबराता है
इसलिए
प्रश्न पूछते डरता है मन...
Monday, 12 June 2017
कामनाएँ
कभी
नष्ट नहीं हो पातीं,
चाहे
अचेतन की गहराई में दफनाओ,
या
चेतना की आग में जलाओ
अपनी
ही राख से
फिर-फिर
पैदा हो जाती हैं ...
फिनिक्स
जैसी|
कितनी
ही बार
अपने
ही हाथों क़त्ल किए जाने पर भी
अपने
ही रक्त में,
फिर
पनप जाती हैं
रक्तबीज-सी|
कामनाएँ
.... अमरता का
न
जाने कौन-सा वरदान ... या
अपूर्णता
का
कौन-सा
अभिशाप
साथ
लेकर जन्मती हैं|
छिन्न-विछिन्न
अपने
घावों को संग लिए
घिसती-भटकती
है
अश्वत्थामा-सी
..................कामनाएँ
शालिनी
रस्तौगी
तू मेरे जीवन का अमृत
तू
मेरे जीवन का अमृत, तू
ही है जीवन हाला|
तू
ही मधुरस है जीवन का, तू ही है विष का प्याला|
हैं
कैसे तार जुड़े तुमसे, क्यों स्वर ये एकाकार हुए,
बन
जीवन का गीत कभी, तुम मुझमें साकार हुए,
मन
वीणा के तार छेड़, अंतर को झंकृत कर डाला|
तू
मेरे जीवन ............
कभी
टूटे सुर-से रूठे तुम, कभी मधुयामिनी राग हुए,
प्रीत
रंग-रस सरसे तो, कभी जोगी बन विराग हुए,
शीतल
मंद बयार कभी, दहके बन करके ज्वाला|
तू
मेरे जीवन का अमृत ......
शालिनी
रस्तौगी
Sunday, 11 June 2017
रिक्तता
रिक्तता से भरा मन
अक्सर
बहुत शोर मचाता है|
जब न कहने को कुछ
न सुनने को बाक़ी हो,
तब अपने-आप से ही
बोलता बड़बड़ाता है|
खुद के दिए तर्क
खुद ही काटता|
बेवजह की सोच पर
वज़ह के किस्से बाँचता,
ख़लिश से कभी
तो कभी ख़ला से
घबराता, खुद से टकराता है|
कितनी बार खुद में डूब-उतर कर
फिर खाली लौट आता है|
जब रिक्त होता है ये मन
तो जाने क्यों भर जाता है?
शालिनी रस्तौगी
Friday, 9 June 2017
लिख नहीं पाती कलम
लिख नहीं पाती कलम, कुछ कष्टों, कुछ पीड़ाओं को,
भाग्य ने लिख दिया स्वयं हो, चेहरे पर जिन
व्यथाओं को|
घनीभूत दुःख की रेखाएँ, चित्रित कर देती
हैं व्यथाएँ,
धूसर उदास रंगों से, भर जाती सारी
कल्पनाएँ|
जीवन फलक पर रच दिया, चित्रकार ने
यंत्रणाओं को|
लिख नहीं पाती कलम ......
यादें सुखद संयोग की, दुःख बदली बन मन पर
छाती हैं,
पलकें पल-पल बोझिल होतीं, अविरल बूँदें झर
जाती हैं|
तड़ित बन गिरती तड़प, बरसाती हैं उल्काओं
को|
लिख नहीं पाती कलम.....
कहते सब कि नियति थी यह, हुआ वही जो होना था,
पर क्रीड़ा क्रूर विधि की थी, ये अनहोनी का होना
था|
विदीर्ण हृदय कैसे सँभले सुन, तथ्यहीन सांत्वनाओं
को
लिख नहीं पाती कलम .....
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
मालि क की रज़ा क्या है ( ग़ज़ल )
फ़िक्र में क्यों हैं, गलत क्या औ वज़ा
क्या है
आप क्या जाने बेअक्ली का मज़ा क्या क्या है ?.
आप क्या जाने बेअक्ली का मज़ा क्या क्या है ?.
बन गया है जो यूँ खुदमुख्तार तू अपना
जानता भी है कि मालिक की रज़ा क्या है ?
कह के ‘हाँ’ जो तुम यूँ वादे से मुकर जाते हो
जो नहीं है यह तो फिर बोलो कज़ा क्या है ?
तीर,खंजर कैद औ फाँसी से क्या होता है,
जो पशेमां खुद उसे और सज़ा क्या है?
दिल तो निकाल के जाने कब का तुझे दिया
धड़क रहा है सीने में, जाने ये पुर्ज़ा क्या है|
Sunday, 28 May 2017
माँ
माँ
💝💝💝💝💝💝💝
कौन कहता है कि सिर्फ माँ होती है माँ
कभी पिता, कभी बहन
कभी सहेली, कभी दोस्त
कभी हमराज़, कभी मार्गदर्शक
तो कभी गुरु बन जाती माँ।
कभी दीवार बन गलत रास्ते पर खड़ी हो जाती
कभी दरवाज़ा बन खुशियों को बुलाती
कभी छत बन कर हर मुसीबत को
अपने सर ले लेती है माँ
सिर्फ माँ नहीं होती है माँ
कभी लोरी बन नींदों को सजाती
कभी करुणा बन आँखों से छलक जाती
कभी मुस्कान बन होंठों पर कलियाँ खिलाती
कभी हौंसला बन इरादों को फौलाद बनाती है माँ
सिर्फ माँ नहीं होती है माँ
💝💝💝💝💝💝💝💝💝
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