Wednesday, 28 May 2014

वह दिखाती है तमाशा

वह दिखाती है तमाशा 
लाल बत्ती पर 
गाड़ियों के रुकते ही 
शुरू हो जाती हैं 
उसकी कलाबाजियां...
शरीर को तोड़ मरोड़ जब 
लोहे के एक छोटे से छल्ले में से
निकल जाती है समूची वो ....
हाँ, अभ्यस्त है 
उसका शरीर 
मुड़ने, तुड़ने, सिकुड़ने का 
क्या पता कितनी बार उसने 
"
आज मैं काम नहीं करुँगी". कहने पर 
शरीर तुडवाया होगा 
कितनी ही बार गाड़ियों में बैठे 
बच्चों के हाथों में 
खिलौने देख 
सिक्के के साथ, अपनी मुट्ठी में 
सिकोड़ लिया होगा 
अपनी चाहतों का आसमान ...
दुत्कार खाने के बाद भी 
देर तक मुड़-मुड़ लौट वही
जातीहैं हसरतें उसकी 
सिग्नल हरा होते ही फिर से
स्पीड पकड़ती गाड़ियों को देख 
फुटपाथ पर बैठी सोचती वह 
...
फिर एक बार और ...
फिर एक बार और 
..
और न जाने, कितने ...
...
एक बार और ....
बस .. अब नहीं हो पायेगा ..
अब और नहीं करुँगी करतब ..
सोचती तो कई बार है पर ....
जब भूखे पेट में उगते हैं, 
चुभते हैं कैक्टस 
तो फिर से 
वो दिखाती है तमाशा ....

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