दिन-रैन झरे अँखियाँ जलधार, रहा मन शुष्क, कहाँ रस री|
मन अंकुर प्रीत फलै-पनपे, मुरझाय रहा सगरा वन री|
बदरा बन आस-निरास ठगें, झलकें, छिप जाएँ करें छल री|
लिख नहीं पाती कलम, कुछ कष्टों, कुछ पीड़ाओं को,
भाग्य ने लिख दिया स्वयं हो, चेहरे पर जिन
व्यथाओं को|
घनीभूत दुःख की रेखाएँ, चित्रित कर देती
हैं व्यथाएँ,
धूसर उदास रंगों से, भर जाती सारी
कल्पनाएँ|
जीवन फलक पर रच दिया, चित्रकार ने
यंत्रणाओं को|
लिख नहीं पाती कलम ......
यादें सुखद संयोग की, दुःख बदली बन मन पर
छाती हैं,
पलकें पल-पल बोझिल होतीं, अविरल बूँदें झर
जाती हैं|
तड़ित बन गिरती तड़प, बरसाती हैं उल्काओं
को|
लिख नहीं पाती कलम.....
कहते सब कि नियति थी यह, हुआ वही जो होना था,
पर क्रीड़ा क्रूर विधि की थी, ये अनहोनी का होना
था|
विदीर्ण हृदय कैसे सँभले सुन, तथ्यहीन सांत्वनाओं
को
लिख नहीं पाती कलम .....
~~~~~~~~~~~~~~~~~~