दिल से निकाल मंदिर-औ - मस्जिद में कैद कर दिया ,
खुदा ने तो नहीं बाँधा था अपने-आप को इन खाकों में .
नवाज़ा था जिसको 'अशरफुल मख्लुकात' के खिताब से
लिए फिरते हैं अब रावण के दस सर अपने शानों पे.
सुनाई पड़ती अब कहाँ कृष्ण कि बंसी फिजाओं में
बस गूँजती अब धनुष की टंकार सबके कानों में
प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में
धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
मानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में
कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से
मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.
दिल से निकाल मंदिर-औ - मस्जिद में कैद कर दिया ,
ReplyDeleteखुदा ने तो नहीं बाँधा था अपने-आप को इन खाकों में .
प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में
धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
मानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में
मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.
वाह ......... मजा आ गया.
एक एक शेर बहुत अच्छे है .. मैं आपकी यही पोस्ट 6-7 बार पढ़ चूका हूँ फिर भी मन नही भरा।
माशाल्ला ऐसे ही लिखते रहिये ... दिल खुश हो गया जी .
आपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा।
अगर आपको अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़ें।
http://rohitasghorela.blogspot.com
धन्यवाद !!
रोहितास जी, बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने इस पोस्ट को इतने ध्यान से पढ़ा.
Deleteशालिनी जी बहुत ही सही बात कही आपने , जितनी बार भी पढता हूँ , कुछ नया सीखता हूँ ।
Deleteआपकी इस मूर्धन्य रचना को प्रणाम ।
कई बार इसे लोगों को सुना चूका हूँ।
☺☺👍👍
हार्दिक आभार सुशील जी
Deleteबहुत बढ़िया....अर्थपूर्ण गज़ल...
ReplyDeleteअनु
धन्यवाद अनु
Deleteअच्छी रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर
धन्यवाद महेंद्र जी.
Deleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 25-10 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....
फरिश्ते की तरह चाँद का काफिला रोका न करो ---.। .
This comment has been removed by the author.
Deleteहलचल में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद संगीता जी...
Deleteशालिनी जी बेहद संवेदन शील रचना है, खूबसूरत अंदाज बयां किया है आपने, बधाई
ReplyDeletehardik dhanyvaad arun ji
Delete
ReplyDeleteकहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से
वाह ... बहुत खूब कहा आपने
dhanyvaad sada ji ..
Deleteबेहतरीन , लाजवाब, शानदार......3 और 4 शेर सबसे कमाल का.....हैट्स ऑफ इसके लिए।
ReplyDeleteतारीफ के लिए तहे दिल से शुक्रिया इमरान जी....
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।
ReplyDeleteprem ji, bahut bahut dhanyvaad!
Deleteऋतु परिवर्तन के समय 'संयम 'बरतने हेतु नवरात्रों का विधान सार्वजनिक रूप से वर्ष मे दो बार रखा गया था जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर 'अथर्व वेद 'पर अवलंबित था।नौ औषद्धियों का सेवन नौ दिन विशेष रूप से करना होता था। पदार्थ विज्ञान –material science पर आधारित हवन के जरिये पर्यावरण को शुद्ध रखा जाता था। वेदिक परंपरा के पतन और विदेशी गुलामी मे पनपी पौराणिक प्रथा ने सब कुछ ध्वस्त कर दिया। अब जो पोंगा-पंथ चल र
ReplyDeleteहा है उससे लाभ कुछ भी नहीं और हानी अधिक है। रावण साम्राज्यवादी था उसके सहयोगी वर्तमान यू एस ए के एरावन और साईबेरिया के कुंभकरण थे। इन सब का राम ने खात्मा किया था और जन-वादी शासन स्थापित किया था। लेकिन आज राम के पुजारी वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना यू एस ए के हितों का संरक्षण कर रहे हैं जो एक विडम्बना नहीं तो और क्या है?
vijay ji,पोस्ट पर आने के लिए धन्यवाद...पर मैं आपकी टिपण्णी को अपनी पोस्ट से संबद्ध नहीं कर पा रही हूँ... कृपया स्पष्ट करें
Deletelajawaab gazal.
ReplyDeleteधन्यवाद अनामिका जी!
Deleteलाजवाब
ReplyDelete.मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.
धन्यवाद नीलिमा जी!
Deleteधर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
ReplyDeleteमानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में
कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से
wah bahukhoob samaj ki vichardhara ko ak kranti ki or prerit karati shashkt rachana ...abhar shalini ji
बहुत बहुत धन्यवाद नवीन जी..
Deleteबहुत खूब, लाजबाब !
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
संजय जी, आपने अपनी व्यस्तताओं के बीच भी ब्लॉग पर आने का समय निकाला,
Deleteहार्दिक आभार
मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
ReplyDeleteपहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.
बहुत अच्छा लिखा है ख़ास कर
ये शेर ,आप इतनी हार्ड उर्दू को अलफ़ाज़ में कैसे ढाल लेती हैं.
मोहब्बत नामा
मास्टर्स टेक टिप्स
इंडियन ब्लोगर्स वर्ल्ड
धन्यवाद आमिर जी,
Deleteआपकी तारीफ से अच्छा लिखने का हौसला मिलता है.
आभार!
बहुत खूबसूरत गज़ल है ! बधाई शालिनी मैम !
ReplyDeleteधन्यवाद सुशीला मैम!
Deleteअंत का मिशरा .. पढ़कर.. कुछ-कुछ होने लगा ... बहुत सुंदर
ReplyDeleteआभार, बबन पाण्डेय जी.
Deleteदिल से निकाल मंदिर-औ - मस्जिद में कैद कर दिया ,
ReplyDeleteखुदा ने तो नहीं बाँधा था अपने-आप को इन खाकों में .
नवाज़ा था जिसको 'अशरफुल मख्लुकात' के खिताब से
लिए फिरते हैं अब रावण के दस सर अपने शानों पे.
सुनाई पड़ती अब कहाँ कृष्ण कि बंसी फिजाओं में
बस गूँजती अब धनुष की टंकार सबके कानों में
प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में
धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
मानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में
कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से
मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.
Posted by shalini at 07:23 33 comments:
बहुत मौजू रचना .करें क्या इस दौर में तो बस "सलमान " रह गए .
चंद फतवे और चंद फरमान रह गए .
हार्दिक धन्यवाद वीरेंद्र जी!
Deleteबहुत ख़ूब! क्या बात है!
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार शालिनी जी! 'ग़ाफ़िल की अमानत' पर पधारने के लिए
हार्दिक आभार,आपके ब्लॉग पर आना मेरा सौभाग्य है चन्द्र भूषण जी,
Deleteप्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
ReplyDeleteबनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में
धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
मानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में...
बेहद भाव पूर्ण ..इंसानियत और भाईचारे के नैसर्गिक भावों
को जागृत करने का कोमल अनुग्रह ...आभार एवं शुभकामनाएं !!!