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Wednesday, 24 October 2012

इंसानियत


दिल से निकाल मंदिर-औ - मस्जिद में कैद कर दिया ,
खुदा ने तो नहीं बाँधा था अपने-आप को इन खाकों में .

नवाज़ा था जिसको 'अशरफुल मख्लुकात' के खिताब से
लिए फिरते हैं अब रावण के दस सर अपने शानों पे.

सुनाई पड़ती अब कहाँ कृष्ण कि बंसी फिजाओं में
बस गूँजती अब धनुष की टंकार सबके कानों में

प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में

धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
मानो  खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में

कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से

मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.



40 comments:

  1. दिल से निकाल मंदिर-औ - मस्जिद में कैद कर दिया ,
    खुदा ने तो नहीं बाँधा था अपने-आप को इन खाकों में .

    प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
    बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में

    धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
    मानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में

    मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
    पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.

    वाह ......... मजा आ गया.
    एक एक शेर बहुत अच्छे है .. मैं आपकी यही पोस्ट 6-7 बार पढ़ चूका हूँ फिर भी मन नही भरा।

    माशाल्ला ऐसे ही लिखते रहिये ... दिल खुश हो गया जी .
    आपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा।
    अगर आपको अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़ें।
    http://rohitasghorela.blogspot.com
    धन्यवाद !!

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    1. रोहितास जी, बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने इस पोस्ट को इतने ध्यान से पढ़ा.

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    2. शालिनी जी बहुत ही सही बात कही आपने , जितनी बार भी पढता हूँ , कुछ नया सीखता हूँ ।
      आपकी इस मूर्धन्य रचना को प्रणाम ।

      कई बार इसे लोगों को सुना चूका हूँ।
      ☺☺👍👍

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    3. हार्दिक आभार सुशील जी

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  2. बहुत बढ़िया....अर्थपूर्ण गज़ल...

    अनु

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  3. Replies
    1. धन्यवाद महेंद्र जी.

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  4. Replies
    1. This comment has been removed by the author.

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    2. हलचल में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद संगीता जी...

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  5. शालिनी जी बेहद संवेदन शील रचना है, खूबसूरत अंदाज बयां किया है आपने, बधाई

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  6. कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
    कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से
    वाह ... बहुत खूब कहा आपने

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  7. बेहतरीन , लाजवाब, शानदार......3 और 4 शेर सबसे कमाल का.....हैट्स ऑफ इसके लिए।

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    1. तारीफ के लिए तहे दिल से शुक्रिया इमरान जी....

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।

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  9. ऋतु परिवर्तन के समय 'संयम 'बरतने हेतु नवरात्रों का विधान सार्वजनिक रूप से वर्ष मे दो बार रखा गया था जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर 'अथर्व वेद 'पर अवलंबित था।नौ औषद्धियों का सेवन नौ दिन विशेष रूप से करना होता था। पदार्थ विज्ञान –material science पर आधारित हवन के जरिये पर्यावरण को शुद्ध रखा जाता था। वेदिक परंपरा के पतन और विदेशी गुलामी मे पनपी पौराणिक प्रथा ने सब कुछ ध्वस्त कर दिया। अब जो पोंगा-पंथ चल र
    हा है उससे लाभ कुछ भी नहीं और हानी अधिक है। रावण साम्राज्यवादी था उसके सहयोगी वर्तमान यू एस ए के एरावन और साईबेरिया के कुंभकरण थे। इन सब का राम ने खात्मा किया था और जन-वादी शासन स्थापित किया था। लेकिन आज राम के पुजारी वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना यू एस ए के हितों का संरक्षण कर रहे हैं जो एक विडम्बना नहीं तो और क्या है?

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    1. vijay ji,पोस्ट पर आने के लिए धन्यवाद...पर मैं आपकी टिपण्णी को अपनी पोस्ट से संबद्ध नहीं कर पा रही हूँ... कृपया स्पष्ट करें

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  10. Replies
    1. धन्यवाद अनामिका जी!

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  11. लाजवाब
    .मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
    पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.

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    1. धन्यवाद नीलिमा जी!

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  12. धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
    मानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में

    कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
    कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से
    wah bahukhoob samaj ki vichardhara ko ak kranti ki or prerit karati shashkt rachana ...abhar shalini ji

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद नवीन जी..

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  13. बहुत खूब, लाजबाब !

    आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)

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    1. संजय जी, आपने अपनी व्यस्तताओं के बीच भी ब्लॉग पर आने का समय निकाला,
      हार्दिक आभार

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  14. मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
    पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.
    बहुत अच्छा लिखा है ख़ास कर
    ये शेर ,आप इतनी हार्ड उर्दू को अलफ़ाज़ में कैसे ढाल लेती हैं.

    मोहब्बत नामा
    मास्टर्स टेक टिप्स
    इंडियन ब्लोगर्स वर्ल्ड

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    1. धन्यवाद आमिर जी,
      आपकी तारीफ से अच्छा लिखने का हौसला मिलता है.
      आभार!

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  15. बहुत खूबसूरत गज़ल है ! बधाई शालिनी मैम !

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    1. धन्यवाद सुशीला मैम!

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  16. अंत का मिशरा .. पढ़कर.. कुछ-कुछ होने लगा ... बहुत सुंदर

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    1. आभार, बबन पाण्डेय जी.

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  17. दिल से निकाल मंदिर-औ - मस्जिद में कैद कर दिया ,
    खुदा ने तो नहीं बाँधा था अपने-आप को इन खाकों में .

    नवाज़ा था जिसको 'अशरफुल मख्लुकात' के खिताब से
    लिए फिरते हैं अब रावण के दस सर अपने शानों पे.

    सुनाई पड़ती अब कहाँ कृष्ण कि बंसी फिजाओं में
    बस गूँजती अब धनुष की टंकार सबके कानों में

    प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
    बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में

    धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
    मानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में

    कहाँ सुलेमान अब जो चींटियों को भी कुचलने से बचा ले
    कुचल कर बढ़ रहे हैं बेबसों को, अपने जल्लाद पांवों से

    मिली है काबीलियत तो इंसानियत का सर ऊँचा करो,
    पहचाने जाओ जो तवारीख में , अपने नेकनामों से.



    Posted by shalini at 07:23 33 comments:

    बहुत मौजू रचना .करें क्या इस दौर में तो बस "सलमान " रह गए .


    चंद फतवे और चंद फरमान रह गए .

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    1. हार्दिक धन्यवाद वीरेंद्र जी!

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  18. बहुत ख़ूब! क्या बात है!
    बहुत-बहुत आभार शालिनी जी! 'ग़ाफ़िल की अमानत' पर पधारने के लिए

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    Replies
    1. हार्दिक आभार,आपके ब्लॉग पर आना मेरा सौभाग्य है चन्द्र भूषण जी,

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  19. प्यार का पैगाम दिया करते थे जो गीता कुरान
    बनते जा रहे अब हथियार, कुछ नामुराद हाथों में

    धर्म के ठेकेदार बन जो फतवे दिया करते हैं यों
    मानो खुदा ने सौंप दिए, अपने फरमान इनके हाथों में...
    बेहद भाव पूर्ण ..इंसानियत और भाईचारे के नैसर्गिक भावों
    को जागृत करने का कोमल अनुग्रह ...आभार एवं शुभकामनाएं !!!

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