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Friday, 31 May 2013

गति और ठहराव ...


गति और ठहराव 
1.
गति का वरदान तुम्हें मैं,
स्थिरता का शाप झेलती
भँवर पड़े तेरे पैरों में
मैं ठहराव की आस देखती 

मैं जड़ तुम थे जंगम
कैसे संभव होता संगम
या मुझमें उद्भव हो गति
या तुझमें ठहराव देखती 


2.

नदी थी मैं 
मिला था 
गति का वरदान मुझे 
निरंतर बहना 
नियति  मेरी  
किनारे से  तुम 
बस वहीँ रुके रहे 
मै बढ़ी, बही, छलकी, मचली 
साथ तुम्हे ले चलने को 
व्याकुल था मन 
पर 
तुम न चले 
चलना नियति न थी तुम्हारी 
पर साथ मेरा देने को 
कर लिया तुमने अपना 
विस्तार अनंत 
जहाँ तक तुम चली 
साथ देते रहे मेरा 
पर 
स्थिर बन 

Tuesday, 28 May 2013

जुस्तजू

ज़ख्म जुल्मों के तेरे अब, ये दिल न झेल पाएगा 

जुस्तजू में गुजारी जीस्त, जुस्तजू में फ़ना हो जाएगा 


जुर्रत आजमाना चाहता है तू, पेशकदमी-ए-इश्क में

तू ज़रा हद तो खींच के देख, उस पार ही हमें पाएगा.


ज़रखरीद नहीं तेरे हम, कि हिकारत हमसे तू बरते
,
लौटेंगे अब न कभी जो, नरमी से भी बुलाएगा.



जायज़ नहीं हमपे तेरा, यूँ जोर-ए-हक़ जताना


जोर आजमाइश से कहाँ दिलों को जीत पाएगा .

Friday, 24 May 2013

अपनी गलती कब मानत है|


दुर्मिल सवैया लिखने का प्रथम प्रयास ..... 


हर बार लरै तकरार करै अपनी गलती कब मानत है|
छिन में छिन जात जिया छलिया छलके सगरे गुर जानत है|
नहिं लाज हया उनको तनि नैन कटारि हिया पर मारत है|
सखि ऐसन ढीठ पिया पर क्यों तन मुग्ध हुआ हिय हारत है|

Wednesday, 22 May 2013

एक नया मोड दे.




मेरे हमनशीं कहानियों को, तू अब एक नया मोड दे.
अब बात तेरी मर्ज़ी पे, प्यार दे या मुझे छोड़ दे .

कब इख्तेयार में है मेरे, तुझे चाहना न चाहना,
तू चाहे दवा ए दर्द दे, चाहे तो दिल को तोड़ दे.

रहम औ करम पे तेरे अब, आ ठहर गई है बात हर.
गम के सागर में डुबो मुझे या सारे गम निचोड़ दे.

मेरी दास्ताँ को सुन के जो, अदा से तुम मुस्काते हो,
लाऊं कहाँ से वो सदा, तेरी रूह को जो झिंझोड़ दे.

आसान बहुत है तोड़ना रिश्ते हों या शीशा कोई ,
वो चीज़ कब बनी है जो, टूटे दिलों को जोड़  दे .

Sunday, 12 May 2013

दास्ताँ गम की


दास्ताँ  गम की ज़माने को सुनाई  ना गई
सरेआम तेरी रुसवाई ज़माने में कराई न गई 

ज़ख्म कुछ गहरे थे इतने कि न भर पाए कभी 
पीर कुछ ऐसी थी कि दुनिया से छिपाई न गई 

थे खरीदार कहाँ कम इस दुनिया में वफ़ा के 
बारहां हमसे नुमाइश अपनी लगाई न गई 

मसलेहत क्या थी महफ़िल में बुलाने की हमें 
पीठ पीछे क्या हँसी मेरी तुमसे उड़ाई न गई 

एक इशारे पे तेरे फ़ना हो जाते हम पल में 
किश्त दर किश्त मौत हमसे बुलाई न गई 

फैसले अपने हैं और फितरत अपनी -अपनी 
हमसे जफ़ा और तुमसे वफ़ा निभाई न गई 

अश्क मोती थे हमारे न  कि  खारा पानी 
जागीर ये ज़माने पे सरे आम लुटाई न गई 

Thursday, 2 May 2013

जो मुरली अधरान धरै सवैया (मत्तगयन्द)


जो मुरली अधरान धरै फिरि कोउ सखी संग बोलत नाहीं|
बांसुरिया संग डाह करै सखि, आह भरै पर रोवत नाहीं|
बेकल हो सुध वे बिसरा, दिन-रात जलै अरु सोवत नाहीं|
मोहक मोहन को छवि सुन्दर, देख हिया कब डोलत नाहीं|