तुम सूर्य, मैं धरा
यूँ तो अस्तित्व मेरा तुमसे
तुमसे बँधी नियति मेरी,
पर कैसा यह विधान
कि बँधी अपनी धुरी से
तुम्हें देखती मैं
चहुँ ओर तुम्हारे घूमती भी
पर कभी तोड़ वलय सीमा
नहीं पहुँच पाती तुम तक|
क्षीण कर अपना तेज
तुम भी नहीं लाँघते
मर्यादा अपनी|
बस दूर से ही प्रेम ताप दे
रखते जीवित
उस प्रेमांकुर को|
क्योंकि लाँघना सीमाओं को
अक्सर कर देता है
भस्म सब कुछ
क्या प्रेम क्या अस्तित्व.....
तो शून्य से अनंत तक
हर पल निरंतर
प्रतीक्षा विहीन प्रेम में रत
मुझ धरा के
तुम सूर्य|
~~~~~~~~~~~~~
shalini rastogi

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