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Thursday, 31 January 2013

क्या दामिनी को न्याय मिल पाया .....


क्यों मुक़र्रर है सज़ा मुख़्तसर सी, इस गुनाह-ए-अज़ीम की 
कम होगा अगरचे, आतिश-ए-दोजख में भी जलाया जाए 

अस्मत थी इक मजलूम की, कोई दूकान तो नहीं थी 
भरपाई को जिसकी, चंद सिक्कों में गिनवाया जाए .

दरिंदगी का चेहरा था सरे आम, क्यों हिचक फिर भी, 
इन्साफ तो तब है जब ,संग हरेक हाथ में पकडाया जाए .

Monday, 21 January 2013

अक्सर ........


अक्सर तुझे देख के हम, नज़रें फेर लेते हैं, 
कि कहीं इन आँखों में, तू मुहब्बत न पढ़ ले .

बात करने से भी तुझसे, अक्सर कतराते हैं. 
आवाज़ की लरजिश कहीं, अफ़साने न गढ़ दे .

तेवर दिखाते हैं, त्योरियां चढ़ाये रहते हैं,
हया रुखसार पे छा के, कहीं राज़ बयां न कर दे.

ज़िक्र तेरा चलते ही महफ़िल में, हम जाम उठा लेते हैं. 
कि कदमों के बहकने को. नशे से परदे में पोशीदा कर दें 

तन्हाई से घबरा के अक्सर, बज़्म सजा लेते हैं ,
तेरी यादें आ आकर कहीं, हमको दीवाना न कर दें .


Thursday, 10 January 2013

इल्ज़ाम

कुछ शेर 
1.
सोचा था कि आज कुछ ऐसा लिखेंगे, जिसमें बसा खुशियों का साज़ हो
पर बेबस है कलम मेरी कि इसमें,   बस  सोज  की  ही स्याही भरी है .

2.
इल्जामों के पहाड़ पर हम खड़े थे शर्मसार ,
यह वो ऊंचाई यही जहाँ से , दोजख नज़र आती थी .

इक गज़ल..

गज़ल बन के जिसके लफ़्ज़ों से संवारने की हसरत की थी, 
अशरार उसी शख्स के  रूह  को भी लहुलुहान कर गए .

इलज़ाम अगर होते तो चलो सह भी लेते हम 
ज़हर लफ़्ज़ों का वो तो ,नस-नस में भर गए .

शिकायत कब हमें कि फूलों के साथ काँटे हैं 
पर फूलों को उजाड़, दामन में सिर्फ काँटे भर गए .

एक समय वो था जब तुझमें खुदा दिखता था,
तेरे निशान-ए-पाँव पे भी, हम सज़दा कर गए .

सिला कब माँगा था तुझसे अपनी वफाओं का ,
बेवफाई की तोहमत पर मगर जीते-जी मर गए .



गैरत


कहाँ गैरत अब यहाँ, कहाँ आँख का पानी 
बेगैरती के हमाम में, आज सभी बेपर्दा हैं 

स्याह सबके ही चहरे हैं , 
गुनाहों की स्याही से ,
आइना क्यों नहीं कोई कि 
अपना भी चेहरा दिख सके 

हरेक  उँगली उठ रही 
किसी दूसरे की जानिब 
अपनी करतूतों के कैसे. 
कोई हिसाब गिन सके 

आज कौन इस वज़्म में 
है दूध का धुला 
कीचड़ में धँसे जो वो क्या 
पाकीज़गी का दम भर सकें 



Wednesday, 9 January 2013

बस ...तू ही तू


जिस तरफ देखूं बस तेरी ही , सूरत नज़र आती है ,

या खुदा! क्या आँखें मेरी, तेरा आइना हो गईं ?



इतना तो इख्तेयार किसी का, किसी पर नहीं देखा,


कि अब मेरी सोच भी, तेरी गुलाम हो गई ?



अंदाज़ा हर कोई लगा लेता है, अपनी दास्ताँ का,


क्या शक्ल मेरी अब, खुली किताब हो गई?



जो भी मिलाता है मुझसे पेशतर, तेरा हाल पूछे है ,


क्या मेरी शख्सियत तेरी पहचान हो गई ?



जिसे देखो वो मेरे हालात पे हँस देता है ,


चर्चा-ए-दीवानगी मेरी , स
रे आम हो गई.

Sunday, 6 January 2013

बेज़ुबान चाँद


रात की दहलीज़ पर बैठ, करते रहे इन्तेज़ार,
बेज़ुबान चाँद की खामोश नज़र, करती रही बेक़रार.
  
सर्द सितारों की नज़रें भी, डबडबाने-सी लगी थी,
पलकें भी न झपकी हमने, न जाने किस खुमार में.

फलक के तारे भी कम पड़ गए गिनने को,
रात ही क्या, उम्र गुज़र गई, इस इन्तेज़ार में.

सामने तुम थे मगर, वो कौन से ताले जड़े थे,
होंठ न हिल भी पाए, मुहब्बत के इज़हार में.

कभी दरम्यां आ गया, मीलों का फासला,
कभी दो कदम ही दरम्यां थे बस, तेरे दीदार में.

आँख नम भी न हुई उसकी, सुन दास्ताँ मेरी.
पुरनम थे चश्म सुन के जिसे, सारी कायनात के  

दूर से देखते रहे मेरा जनाज़ा, इत्मीनान से
तुझसे तो नर्मदिल हैं, संग मेरी मज़ार के.
 
बरस भी न पाए जम के, आहों के बादल ,
आँखों में घुमड़ के रह गए, बादल गुबार के.

Friday, 4 January 2013

रिश्ते




दिल के रिश्ते 
बड़े अजीब से होते हैं 
रिश्ते दिल के 

करीब होकर भी 
कोई तो 
पास नहीं होता
तो दूर होके भी 
कुछ 
दिल से जुड़े होते हैं. 

कभी नामालूम-सी 
दीवारें खिचीं होती है
दरम्यां,
कभी दीवारों के परे भी 
रिश्ते पनप रहे होते हैं.

गलतफहमी है कि सिर्फ 
जन्म से 
वजूद में आते हैं,
खून से बावस्ता 
नहीं होते रिश्ते,
विश्वास  की 
कच्ची डोर से बंधे होते हैं. 

मज़बूत इतने कि
क़यामत भी आ जाए तो 
जुम्बिश न पड़े, 
नाज़ुक इस कदर कि 
हल्की सी ठोकर से भी 
बिखरे पड़े होते हैं.

तितलियों के परों-से 
रंगीन औ नाजुक,
सफ़ेद दामन-से पाक 
हाथ से जो छू लो तो 
पल में मैले  होते हैं .. 


अच्छा लगता है


अच्छा लगता है
जब 
अपना न होकर भी 
अपना सा लगे .....
जब कोई 
पल दो पल 
पास ठहर 
पूछ ले 
हाल-ए-दिल 
उसकी अनसुनी, अनजानी सी 
आवाज़ भी
अपनी सी लगे ......
खुशियों में शामिल रहे जो 
खिलखिलाहट की तरह 
और गम में 
जो अपना साया-सा लगे.....
न हमसफ़र, 
न हमनवां अपना,
दूर होने पर भी 
उसके 
नजदीकियों का
हौंसला - सा लगे .....
हाथ बढ़ाया तो 
थाम लेगा ज़रूर 
लड़खड़ाने से भी अपने
अब कोई  डर न लगे ...