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Thursday, 10 January 2013

गैरत


कहाँ गैरत अब यहाँ, कहाँ आँख का पानी 
बेगैरती के हमाम में, आज सभी बेपर्दा हैं 

स्याह सबके ही चहरे हैं , 
गुनाहों की स्याही से ,
आइना क्यों नहीं कोई कि 
अपना भी चेहरा दिख सके 

हरेक  उँगली उठ रही 
किसी दूसरे की जानिब 
अपनी करतूतों के कैसे. 
कोई हिसाब गिन सके 

आज कौन इस वज़्म में 
है दूध का धुला 
कीचड़ में धँसे जो वो क्या 
पाकीज़गी का दम भर सकें 



9 comments:

  1. आपने तो आज के दरिंदा सिफत लोगों का नक्षा खीच दिया। और कुछ आज के सियासी माहौल के भी अहवाल हैं।

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  2. बहुत बढ़िया मैम


    सादर

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  3. सही कहा आपने ! सारे आईने टूट गए .... ऐसा लगता है ...
    ~सादर!!!

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  4. वाह बहुत ही खुबसूरत.......दूसरों पर ऊँगली उठाने से पहले अपने गिरेहबान में झाँकना ज़रूरी है ।

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  5. शालनी जी बेहद शालीनता से भावों को व्यक्त किया है आपने, प्राणी को आईना दिखाती और समझाती सुन्दर रचना हार्दिक बधाई.

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  6. सच है की अपनी करतूतों को कोई गिनना ही नहीं चाहता ...

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