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Friday 27 March 2015

उथल - पुथल


उथल पुथल तो होनी ही थी
आखिर
बाशिंदे थे हम 
दो अलग दुनियाओं के 
न कभी एक थी हमारी धुरी 
न एक क्षितिज अपना 
अपने अपने केंद्र के गिर्द ही 
घूम रहे थे हम| 
प्रत्याकर्षण 
न नियति थी अपनी 
न प्रकृति 
अपने गुरुत्वाकर्षण के विरूद्ध जा 
तोड़े थे हमने नियम 
तो 
सारी कायनात में 
मचनी थी 
उथल पुथल 

Tuesday 10 March 2015

सूत्र

कितने सूत्र 
गुंथे परस्पर 
और बन गयी 
एक डोरी 
बंध गए 
मजबूत बंधन 
और फिर किसी एक बात पर 
ज़रा से अविश्वास पर 
चटक कर टूटा क्या एक सूत्र 
ढीले पड़ गए सब 
रिश्तों के बंध 
बेगाने बनते गए यूँ सम्बन्ध
लो देख लो कैसे 
एक एक कर 
टूट गए 
जाने कितने सूत्र 


मैं चल रही थी


मैं चल रही थी 
साथ लिए 
न जाने कितने भँवर 
पैरों में 
और कितने सैलाब 
आँखों में
सर उठते थे मन में
न जाने कितने तूफां
हर बार
भीतर से उठती लहर कोई
बहा ले जाती मुझे
मुझसे ही दूर ... बहुत दूर
आशंकाओं के झंझावात तो
उठ रहे थे भीतर
सब कुछ उथल पुथल
सब बिखरा हुआ
वर्ना बाहर तो था सब
शांत , अडोल, अविचल
बस एक अकेली ... मैं
चल रही थी