हर पल घटते नए घटनाक्रम में,
ऊबड़-खाबड़ में, कभी समतल में,
उथल-पुथल और उहापोह में,
किन भावों का वरण करूँ मैं ?
कुछ नया घटित फिर हो जाता|
जब तक उसको मैं सोचने बैठूँ,
किसी और दिशा कुछ ले जाता|
क्या-कुछ-कब-कैसे-कितना के ,
चक्कर में कब तक भमण करूँ मैं?
किन भावों का वरण करूँ मैं?
विद्रूप-विकट कुछ घट जब मन में,
विद्रोह-विषाद-विरक्ति लाता |
सब तहस-नहस कर नव रचना को,
हो अधीर मन है अकुलाता|
कर चिंतन एक नई आस का,
नैराश्य-त्रास का क्षरण करूँ मैं|
किन भावों का वरण करूँ मैं?
कुछ मेरे अंतस के सपने,
सपनों में धूमिल होते अपने|
अपनों को चुनना या सपने बुनना,
किसको पाने में छूटे कितने |
हानि-लाभ क्या गणन करूँ मैं ?
किन भावों का वरण करूँ मैं?
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शालिनी रस्तौगी
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