जो भी है
ज्ञान से परे,
दृष्टि से दूर,
जिह्वा से अकथनीय
कानों से अश्रव्य
बस
बार-बार वही
खींच लेता है
अज्ञात का आकर्षण
जो दिख कर भी नहीं दीखता
कानों में गूंजकर भी
सुनाई नहीं देता
बस
बार बार वही
अश्रव्य
क्यों देता है
आमंत्रण...........
दृष्टि की सीमा
जहाँ धुंधला जाती है
दूर क्षितिज पर
कोई तस्वीर
बनती - मिटती नज़र आती है
आस की एक रेशमी-सी
किरण की डोर
बाँध लेती है
फैला अपना सम्मोहन
और
उसी डोर में बंधे
खिंचते से चले जाते
उसी अज्ञात, अदृश्य, अश्रव्य की ओर
बहुत ही सुन्दर ...एक वीणा सी बजती है कहीं जो गौतम को बुद्ध बना देती है ।
ReplyDeleteधन्यवाद इमरान जी!
Deleteकल 28/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
सुन्दर चिंतन... सार्थक रचना....
ReplyDeleteहार्दिक बधाई.
हबीब जी, बहुत बहुत शुक्रिया!
Deleteसुन्दर प्रभावपूर्ण प्रस्तुति
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