मेरा दिल, मेरी धडकन ,
मेरे ख्याल औ अशरार मेरे
मेरी खुशियाँ , गम भी मेरे
सब गीत मेरे, सब राग मेरे,
सब कुछ मैं,
मैं और बस मेरा
और सिर्फ
मेरे तक सीमित
अभी 'मैं' से मुक्त कहाँ हो पायी..
बस ' मैं ' के आगे रुक जाती
मानो मेरी सारी दुनिया
मेरे लिए बस 'मैं' ही सरहद
'मैं' ही लगता बस मुझको तो
करीब मेरे दिल के बेहद
मेरे ही चरों ओर भटकते
मेरे बेबस ख्यालात परिंदे
परकटे बेचारे कहाँ तक जाएँ
'मुझ' जहाज के ये वाशिंदे
बस मुझ पे ही खत्म हो जाती
क्यों कायनात सिमट मेरी
क्यों न खुद से आगे बढ़ पाती
ये खुदगर्ज़ निगाह मेरी
काश.........
तोड़ ये 'मैं ' का बंधन
थोडा तो आगे बढ़ पाती ,
कुछ दूजों के दिल की भी बातें
कुछ तो समझती
कुछ कह पाती ..............
मेरे ख्याल औ अशरार मेरे
मेरी खुशियाँ , गम भी मेरे
सब गीत मेरे, सब राग मेरे,
सब कुछ मैं,
मैं और बस मेरा
और सिर्फ
मेरे तक सीमित
अभी 'मैं' से मुक्त कहाँ हो पायी..
बस ' मैं ' के आगे रुक जाती
मानो मेरी सारी दुनिया
मेरे लिए बस 'मैं' ही सरहद
'मैं' ही लगता बस मुझको तो
करीब मेरे दिल के बेहद
मेरे ही चरों ओर भटकते
मेरे बेबस ख्यालात परिंदे
परकटे बेचारे कहाँ तक जाएँ
'मुझ' जहाज के ये वाशिंदे
बस मुझ पे ही खत्म हो जाती
क्यों कायनात सिमट मेरी
क्यों न खुद से आगे बढ़ पाती
ये खुदगर्ज़ निगाह मेरी
काश.........
तोड़ ये 'मैं ' का बंधन
थोडा तो आगे बढ़ पाती ,
कुछ दूजों के दिल की भी बातें
कुछ तो समझती
कुछ कह पाती ..............
काश.........
ReplyDeleteतोड़ ये 'मैं ' का बंधन
थोडा तो आगे बढ़ पाती ,
कुछ दूजों के दिल की भी बातें
कुछ तो समझती
कुछ कह पाती ..............
शालिनी जी बेहद सुन्दर प्रस्तुति........ प्रेम की उत्पत्ति ही मय से दूर रहने के बाद होती है | अगर प्रेम को परिभाषित किया जाये तो प्रेम = परे(दूर) +मय | अर्थात मय यानि अहंकार को दूर करने के बाद ही प्रेम की सच्ची उत्पत्ति होती है | जहाँ मय है वहां प्रेम नहीं और जहाँ प्रेम है वहा मय नहीं | आपकी रचना में मय को दूर करने की परिकल्पना है | अतः रचना गंभीरता को समेटे हुए है | एक सार्थक सोच के लिए प्रेरित कराती हुई रचना के लिए हार्दिक बधाई |
मेरा दिल, मेरी धडकन ,
ReplyDeleteमेरे ख्याल औ अशरार मेरे
मेरी खुशियाँ , गम भी मेरे
सब गीत मेरे, सब राग मेरे,
सब कुछ मैं,
मैं और बस मेरा
और सिर्फ
मेरे तक सीमित
अभी 'मैं' से मुक्त कहाँ हो पायी... यह ' मैं ' अहम् नहीं , मुक्ति अहम् से होती है. अपनी पहचान दूसरे को पहचानने में कारगर होती है .
वाह
ReplyDeleteबहुत खूब...
आसान नहीं है इस "मैं" की दीवार को तोड़ पाना...मगर असंभव भी नहीं...
सच में यह मै हमें एक दायरे में सिमित कर देता है
ReplyDeleteजिसके आगे हम कुछ सोच नहीं पाते और सोचते भी है तो केवल अपना स्वार्थ ...
यही है "मै" की महिमा ....
उत्कृष्ट रचना ....
धन्यवाद रश्मि जी, रीनाजी, एवं विद्या जी .......
ReplyDelete'मैं' ही तो रूकावट है इस अनंत और आत्मा के बीच इसी से मुक्त होना होगा.....'मैं' सिर्फ 'अहं' है अन्यथा कुछ भी नहीं......गहन अनुभूति है इस पोस्ट में.....शानदार।
ReplyDeleteधन्यवाद इमरान जी !
Deleteबहुत सुन्दर रचना, ख़ूबसूरत भावाभिव्यक्ति , बधाई.
ReplyDeletemeri kavitayen ब्लॉग की मेरी नवीनतम पोस्ट पर भी पधारकर अपना स्नेह प्रदान करें.
धन्यवाद शुक्ला जी !
Deleteआपकी कृति प्रशंशनीय है.
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है आपने! आपकी लाजवाब कविता को पढ़कर तारीफ़ के लिए अल्फाज़ कम पर गए!
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी !
Deleteधन्यवाद...... जी !
ReplyDeleteमेरे ही चरों ओर भटकते
ReplyDeleteमेरे बेबस ख्यालात परिंदे
परकटे बेचारे कहाँ तक जाएँ
'मुझ' जहाज के ये वाशिंदे
....बहुत सारगर्भित और सुंदर रचना...इस 'मैं' की सरहदें लांघने में उम्र गुज़र जाती है...