Tuesday, 7 June 2011

                        

फूला पलाश 

प्रिये!
जब तुम प्रथम बार मिले थे,        
तब भी फूल रहा था
जंगल में चहुँ ओर पलाश 
रक्तिम पुष्प
बने थे साक्षी,
अपने प्रथम मिलन के
पुष्पों की लाली  छितर गई थी,
दोनों के आनन पे
दूर तक फैले पेड़ों के
गलियारे में,
फूलों के गलीचे पे
साथ-साथ चहल कदमी करते,
जब कभी छू जाता था
औचक ही हाथ तुम्हारा,
सिहर सिहर उठता था ये तन,
पुलकित हो रहता मन बंजारा 
हवा के एक चंचल झोके ने
लाल पुष्प एक ,
अटका दिया था 
केशों में मेरे जब,
सम्मोहित हो, वो अपलक
देखना तुम्हारा,
और मेरा खुद में ही 
सिमट - सिमट जाना
याद अभी हैं वो बेसुध शामें,
काटी थी अक्सर
इसी पलाश तले
एक दूजे की आँखों में खोये,
कुछ न कह, सब कुछ कहते
यही पलाश तो रहा हमारे
मूक प्रेम का , मूक साक्षी
दिन बदले, मौसम बदले
ऋतु आई और ऋतु बीती
फिर आने का वादा कर
जो गए प्रिये तुम एक बार
कितनी ही बार
फूला और झरा है 
इस जंगल में
लाल पलाश
                                                  

2 comments:

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