रुखसती की भी कोई रस्म हुआ करती है,
यक-ब-यक रास्ते हमसफ़र बदला नहीं करते.
आसुओं में धुले वादे, कुछ दोबारा मिलने की कसमें,
सिसकियों में दबे अल्फाज़, गिरह में बंधे कुछ हसीं पल,
साजो-सामान ये सब विदाई का हुआ करते हैं,
यूँ खाली हाथ तो किसी को विदा नहीं करते
बेचैनियाँ बिछडने की, कशमकश कहीं खोने की
कुछ अनकही कह देने की, कुछ कही-सुनी भूल जाने की
हजारों बातें जुदाई की दरकार हुआ करती हैं
खामोशियाँ से तो तन्हा सफर कटा नहीं करते
ठिठक कर उठते हैं कदम, पलट फिर लौटती हैं नज़रें
लरजते लबों की जुम्बिश, हवाओं में लहराता दामन
रोक महबूब को लेने की ख्वाहिशे बेशुमार हुआ करती है
इन लम्हों को हाथ से यूँ, फिसलने दिया नहीं करते
बहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteरुखसती की भी कोई रस्म हुआ करती है...वाह...
अनु
बहुत बहुत धन्यवाद अनु जी!
Deleteअच्छी रचना, बहुत सुंदर
ReplyDeleteबेचैनियाँ बिछडने की, कशमकश कहीं खोने की
कुछ अनकही कह देने की, कुछ कही-सुनी भूल जाने की
हजारों बातें जुदाई की दरकार हुआ करती हैं
खामोशियाँ से तो तन्हा सफर कटा नहीं करते
महेश जी , ब्लॉग पर आने के लिए हार्दिक आभार!
Deleteबेचैनियाँ बिछडने की, कशमकश कहीं खोने की
ReplyDeleteकुछ अनकही कह देने की, कुछ कही-सुनी भूल जाने की
हजारों बातें जुदाई की दरकार हुआ करती हैं
खामोशियाँ से तो तन्हा सफर कटा नहीं करते
वाह ... बहुत खूब
हार्दिक आभार... सदा जी!
Deleteवाह क्या बात है शालिनी जी बेहतरीन उम्दा रचना, ये पंक्तियाँ तो लाजवाब हैं
ReplyDeleteसाजो-सामान ये सब विदाई का हुआ करते हैं,
यूँ खाली हाथ तो किसी को विदा नहीं करते
शुक्रिया अरुण जी!
Deleteबहुत सुंदर एहसास ......
ReplyDeleteशुभकामनायें ...
धन्यवाद अनुपमा जी!
Deleteवाह क्या कहना, बहुत सुन्दर लिखा है आपने शालिनी जी,,,,
ReplyDeleteरोक महबूब को लेने की ख्वाहिशे बेशुमार हुआ करती है
इन लम्हों को हाथ से यूँ, फिसलने दिया नहीं करते,,,,,
RECECNT POST: हम देख न सके,,,
आभार धीरेंद्र जी!
Deleteरुखसती की भी कोई रस्म हुआ करती है,
ReplyDeleteयक-ब-यक रास्ते हमसफ़र बदला नहीं करते.
भावनाओं का ज्वार ,रागात्मकता का एक सैलाब लिए है ये रचना जिसने भावजगत को सारे मानसिक कुंहासे को शब्दों में ढाला है बहुत सशक्त रचना .
बहुत बहुत शुक्रिया वीरेंद्र जी....
Deleteसुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी!
Deleteवाह शालिनीजी ...बहुत ही खूबसूरत बात कही है ....रुखसती के दर्द को जिला दिया
ReplyDeleteधन्यवाद सरस जी!
Deleteवाह वाह ...........मुबारकबाद कबूल करें शालिनी जी.........बेहतरीन ।
ReplyDeleteशुक्रिया इमरान जी!
Deleteबहुत ही रम्य रचना बधाई शालिनी जी |ब्लॉग पर हमारा उत्साहवर्धन करने हेतु विशेष आभार |
ReplyDeleteजय कृष्ण जी , आपकी रचनाओं को पढ़ना हमारे लिए सौभाग्य की बात है... और रचना की प्रशंसा कर उत्साह वर्द्धन करने के लिए धन्यवाद!
Deleteभावों का बेहतर प्रवाह ..!
ReplyDeleteहार्दिक आभार, केवलराम जी.
Deleteठिठक कर उठते हैं कदम, पलट फिर लौटती हैं नज़रें
ReplyDeleteलरजते लबों की जुम्बिश, हवाओं में लहराता दामन
रोक महबूब को लेने की ख्वाहिशे बेशुमार हुआ करती है .......ख्वाहिशें ...........करती हैं .
इन लम्हों को हाथ से यूँ, फिसलने दिया नहीं करते
बहुत सुन्दर प्रस्तुति .
वाड्रा गीत
सबसे प्यारा देश हमारा ,
घोटालों में सबसे न्यारा ,
आओ प्यारे बच्चों आओ ,
घोटालों पर बलि बलि जाओ .
एक साथ सब मिलकर गाओ ,
इटली का दामाद हमारा ,
हमको है प्राणों से प्यारा ,
कांग्रेस का राजदुलारा ..
घोटालों से हिंद हमारा .
घोटाला प्रिय देश हमारा ,
दुनिया में है सबसे न्यारा .
बहुत सुंदर
ReplyDeleteरुखसती की भी कोई रस्म हुआ करती है,
यक-ब-यक रास्ते हमसफ़र बदला नहीं करते.
बहुत सुंदर
ReplyDeleteरुखसती की भी कोई रस्म हुआ करती है,
यक-ब-यक रास्ते हमसफ़र बदला नहीं करते.