Tuesday 24 December 2013

एक ज्वलंत प्रश्न ....


हे पितृसत्तात्मक समाज!
देना होगा तुझे 
उत्तर यह आज.
लाने को अस्तित्व संतान का 
है उत्तरदायी यदि पिता 
और माध्यम है माँ 
क्यों चुराता है मुँह उत्तरदायी 
अपने उत्तरदायित्व से 
क्यों पालन संतान का बन जाता कर्त्तव्य 
मात्र माध्यम का 
क्यों सारे अधिकारों को हाथ में ले 
लगाता जाता कर्त्तव्यों का ढेर 
स्त्री के सर 
क्यों पह अधिकारी है सदा 
प्रताड़ना, वंचना, उपेक्षा की ही 
शारीरिक प्रबलता के भ्रम  में 
हर बार मिथ्या अहम् में
जमाता है धौंस,
चलाता है जोर 
कभी नारी मन,कभी उसकी आत्मा  
कभी उसका शरीर 
कर डालता क्षत - विक्षत 
क्यों मातृसत्ता सतत 
विवश, लाचार, संतप्त
किस उधार का 
वह तिल-तिल जल 
चुका रही है ब्याज 
देना होगा तुझे उत्तर आज 
हे पितृसत्तात्मक समाज !

Friday 20 December 2013

प्राथमिकताएँ.....


ज़रूरत है आज फिर से 
प्राथमिकताएँ तय करने की 
वख्त आ चला 
निर्णय का 
कुछ सम्बन्ध खंगालने का 
बुनने का नए रिश्ते, कुछ को उधेड़ने का 
आवश्यकता है 
टटोलने की अपना ही मन 
अब करना फिर से आत्मावलोकन 
अम्बार सा लगता जा रहा 
स्मृतियों का मन में 
आज कुछ क्षण बैठ चैन से 
करनी है छंटाई 
दुखद पलों को निकाल मन से 
हैं सहेजने कुछ सुखद पल 
बंधनों में ढील दे 
मुक्त करना है कुछ परिंदों को 
जो दमन में न समाएँ
उन्मुक्त गगन के उन बाशिंदों को 
मन बैठ 
कुछ देर कर ले मंथन 
आज करने का चिंतन 
है फिर से 
ज़रूरत ......



Saturday 14 December 2013

शब्द ....

शब्द ....
कितने बेमानी हो जाते हैं 
कभी - कभी 
अपने ही मुख से निकली 
इन अपरिचित ध्वनियाँ
किसी अतल कूप में गूँजती 
अस्पष्ट आवाजों सी 
भ्रमित से हम 
करते प्रयास 
कुछ अर्थ ढूँढने का 
कुछ खुद को समझने का
खुद को विश्वास दिलाने का
पर
हर बार होते साबित झूठे
अपनी ही बातों की
सत्यता प्रमाणित करने को
घुमती दृष्टि चहुँ ओर
पर विरोध के स्वर तो कहीं
उठा रहे होते सर
मन के भीतर
अंतस में कोई करता अट्टहास
धिक्कारता बार- बार
आत्म ग्लानी से भरे हम
बस बोलते जाते हैं
बिना आत्मा वाले
बेमतलब से
कुछ शब्द

शब्द निशब्द करते हैं ...






शब्द निशब्द करते हैं ...

कुछ शब्द तृषित करते हैं
कुछ शब्द तृप्त करते हैं 
कुछ नेह लेप लगाते
कुछ संतप्त करते हैं
शब्द निशब्द करते हैं ...


कुछ शब्द मोह भरते
आसक्ति जागते मन में
कुछ अनुराग मोह माया से
मन को विरक्त करते हैं
शब्द निशब्द करते हैं ...

विरोधी जग को करके
कड़वाहट से मन भरते
कभी जनम जनम के लिए
मनों को असंपृक्त करते हैं
शब्द निशब्द करते हैं ...

कुछ शब्द भावों का
अतिरेक भरते मन में
कुछ भावशून्य करके
हमें परित्यक्त करते हैं
शब्द निशब्द करते हैं ...

या दिल कि सुनो दुनियावालों , या...


दुनिया मेरी सुने, इसलिए कुछ कहूँ मैं,
कि अपने दिल ही की, कही बस सुनूँ मैं,

बदी की मखमली, नेकी की पथरीली 
बता दिल राह कौन-सी  पे चलूँ मैं .

पाकीज़गी की अपनी, औरत ही दे परीक्षा 
क्यूँ शक तेरा मिटाने, हर बार ही जलूँ मैं 

जब चाहा तूने तोड़ा, मिटाया, बना दिया .
मिट्टी की मानिंद तेरे सांचों में क्यूँ ढलूँ मैं 

मुँह खोलने पे तल्ख, कहती हमें ये दुनिया,
बेहतर यही कि बस अब,खामोश ही रहूँ मैं।

Monday 2 December 2013

परछाई तुम्हारी.........


परछाई मात्र थे तुम
मैं मूढ़
ढूँढती रही
भौतिक अस्तित्व तुम्हारा
बहुत चाहा ... छू लूँ तुम्हें
महसूस कर पाऊं
स्पर्श तुम्हारा
कुछ क्षण को ही चाहे
मिल पाए सानिध्य तुम्हारा..
हुए आभासित तुम, तुमको
आलिंगनबद्ध करने को फैला दीं
मैंने अपनी व्याकुल बाहें
अंजुरी में भर तुम्हें
नयन से पी आकंठ तृप्ति  की चाह
फिर रही अतृप्त, फिर रही अधूरी
..... हाँ......
गगन सम तुम
अनंत विस्तार तुम्हारा
कहाँ समाते ..मेरी आँखों, मेरी बाहों
मेरी नन्हीं हथेलियों में
मैं तृषित, भ्रमित, उद्द्विग्न
देर तक
बस हाथ बढ़ा
सहलाती रही
वो धरा जहाँ थी पड़ रही
 परछाई  तुम्हारी..........

Friday 18 October 2013

सवैया ( सुंदरी )


सवैया ( सुंदरी )
सगण x 8 + 1 गुरु 
हर रोज़ सुनाय कथा नव साजन, रोज़ करै नव एक बहाना|
सखि हार गई अब तो उनते, कह झूठन का कित कोय ठिकाना |
पल में फिरि जाय न याद रखे, कब जानत है वह बात निभाना |
अभिसार किये नित राह तकूँ, वह जानत सौतन सेज सजाना ||

Saturday 28 September 2013

सावन संग होड़ (कुण्डलिया)

कुण्डलिया 
सावन संग आज लगी, सखी नैन की होड़|
मान हार कौन अपनी, देत बरसना छोड़||
देत बरसना छोड़, नैन परनार बहे हैं |
कंचुकि पट भी भीज , विरह की गाथ कहे हैं ||
पड़े विरह की धूप, जले है विरहन का मन|
हिय से उठे उसाँस, बरसे नैन से सावन ||

Sunday 15 September 2013

राजनीति ( कुण्डलिया छंद)



राजनीति में चल रहा, लाशों का है खेल |
धूर्त मिले हैं धूर्त से, गिद्धों का है मेल ||
गिद्धों का है मेल,  धर्म की आँच जलाएँ|
पाने सत्ता का लाभ, देश को हैं सुलगाएँ||
लालच का तूफान, फैली हर ओर अनीति |
लोभियों  की जमात, बनी है ये राजनीति ||

Wednesday 11 September 2013

नारी ( कुण्डलिया छंद)


नारी धुरी समाज की, जीवन का आधार|
बिन नारी जीवन नाव, डूबे रे मंझधार ||
डूबे रे मंझधार, यह गुरु प्रथम बालक की |
संस्कार की दात्री, पोषक है आदर्श की ||
नारी का अपमान, पुरुष की गलती भारी|
मानवता का बीज, सींचे कोख में नारी ||

शब्द तेरे ...


हर शब्द तेरा 
मन ही मन मैं 
गुनती रही 
बार-बार दोहरा के उसे 
खुद ही सुनती रही 
मुँह में उसे घुमाती रही 
कुछ खट्टी मीठी गोली की तरह
घुल-सी गई मिठास 
अंतस में मेरे .....
तेरा कहा हर शब्द 
कभी  साकार बन 
तैरता रहा आँखों के आगे 
नदी की लहर पर 
डूबता- उतरता रहा 
कभी पंख-सा उड़ता रहा 
हवा के परों पर 
हर बार नया रूप धर 
सामने आ खड़ा हुआ 
भरमाने को मुझे 
........ हाँ ..... 
बस यही तो किया अब तक 
शब्दों ने तेरे 
कैसा मोहक जाल फैलाया 
भ्रमित कर मुझे 
बेतरह उलझाया 
तृषित चातक की प्यास बन
मरुस्थल में जल दिखला 
मृग सा मुझे अपने पीछे 
दौड़ाता ही रहा है 
हर शब्द तेरा  



Saturday 7 September 2013

एक मुट्ठी आसमान

लो फिर 
समेट लिया मैंने 
अपना आसमान
अभी कल ही तो खोली थी 
अपनी मुट्ठी मैंने 
और फैला दिया था 
दूर-दूर तक 
ताने थे सुन्दर वितान 
कुछ ख्वाहिशों के रंग से 
रंग डाला था इन्द्रधनुष 
कुछ उम्मीदों की चमक से 
चमकाया सूरज का आतिशदान 
नन्हीं-नन्हीं हसरतों के सितारे टाँके 
झिलमिला उठा मेरा आकाश 
पर न क्यूँ तुम्हें 
न भाए ... 
ये रंग, ये चमक, ये झिलमिलाहट 
बुझा कर फिर हसरतों के दिए 
बेबसी की काली चादर ढाँप
जब्त कर ली सब रंगीनियाँ फिर 
फ़र्ज़ के अंधेरों में करके गर्त उन्हें फिर 
अपनी मुट्ठी में 
लो फिर 
समेट लिया मैंने अपना आसमान 

Sunday 25 August 2013

स्नेह पाश


कस लो अपना स्नेह पाश
कब  मुक्ति की आकांक्षी मैं
है प्रिय मुझे 
ऐसा ये बंधन 
रोम- रोम बंध जाती मैं
निज मन पर रहा 
वश कहाँ मेरा 
परवश होकर 
भटके यह बस 
जिस ओर मैं चाहूँ 
जिस ओर मैं जाऊं 
तुम तक पहुँचाते
मेरे ये पग 
दिशा भ्रांत मैं 
विवश अनुगामी
स्वेच्छाचारी मन की बन 
फिर आ जाती पास तुम्हारे 
लो,फिर लो पाश ये कस 








कहाँ हर किसी की तरफ उसकी नज़र जाए है


कहाँ हर किसी की तरफ उसकी नज़र जाए है
एक नज़र देख ले किस्मत उसकी संवर जाए है
    
कुछ ऐसा नूर है उसमें, ऐसी अदा पायी है
जो भी देखे है नज़र, उसपे ठहर जाए है

पिघलते कांच-सा वो बह रहा रगों में मेरी
कभी दिल में तो कभी खूँ में उतर जाए है
     
जिन्दा कहाँ है हम जो तुझे जल्दी है पड़ी     
दो घड़ी रुक ऐ मौत, कि वो ठहर जाए है

अजीब शै है मुहब्बत नींद गई चैन गया
साँस जाने में बस अब, कोई कसर जाए है

है खौफज़दा खुद दहशत भी दहशतगर्दों से
सामने देख इन्हें मुड़ खुद ही कहर जाए है
    
तल्खियों ने किया दुश्वार मयकशी को मेरी
बूंद उतरे गले में तो लगे जैसे जहर जाए है

ऐशाइशें जुड़ीं हों भले दुनिया की घरों में
एक माँ न हो तो परिवार बिखर जाए है

नूर ऐ इलाही है रोशन ज़र्रे-ज़र्रे में जहाँ के
वो ही वो है बस जहाँ तक नज़र जाए है

महफ़िल ऐ शम्मा में ज़िक्र हो परवानों का
सबसे पहले मेरा ही, किया जिकर जाए है

अजब सी ताज़गी है कि तुझे सोच भी लूँ
चहरे से शिकन, जेहन से फिकर जाए है

मरने से पहले एक मुलाकात का वादा था
इन्तेज़ार उनको कब मेरे मरने की खबर आए है

आज शब उसने मिलने का पैगाम दिया है
आँखों ही आँखों में बीता हरेक पहर जाए है 

Saturday 17 August 2013

विरहा ( सवैया- दुर्मिल)


विरहा  अगनी  तन  ताप  चढ़े, झुलसे  जियरा  हर सांस जले|

जल से जल जाय जिया जब री, हिय की अगनी कुछ और बले|

कजरा  ठहरे  छिन  नैन  नहीं, रहती  अश्रुधार  कपोल ढले|

दिन के चढ़ते इक आस बंधे, दिन बीतत है अरु आस टले ||

Saturday 10 August 2013

परवाज़


1.
पिंजरे में कैद मगर सोज नहीं सुर से साज़ भरो,

गम अपने छिपाकर हँसी से अपने अंदाज़ भरो,

बड़ा फ़राक दिल है ये सैय्याद देखो इसकी अदा

 ,
पर कैँच करके परिंदों से कहे कि अब परवाज़ भरो.


2
.
मेरी आवारगी को अपनी चाहत का संग दे ज़रा
 
मुद्दतों कैद हसरतों को आज़ादी के पंख दे ज़रा

 
एक बार जो चढ़े रंग तो ता-उम्र न छूटे फिर

 
मेरी रूह को इश्क के रंग में बेपनाह रंग दे ज़रा


3.


पंख हैं न परवाज़ कोई

अंजाम है न आगाज़ कोई

आवारगी फकत एक मकसद

इस मन न सरताज कोई 

Friday 26 July 2013

राधा बनी कान्हा



(मुक्त छंद)

तू मेरी राधा बन कान्हा, मैं अब तेरा कान्हा बनूँगी |

गौर वर्ण को तज अपने , तेरा श्याम वर्ण गहूँगी |


मोर मुकुट सिर धारुँगी, पर मुरली अधरों पर न धरुँगी |


ग्वालों संग वन-वन भटकूँ, लोक लाज सगरी तजूंगी ||

Tuesday 23 July 2013

फुर्सत तो मिले

फुर्सत तो मिले
एक बार ज़रा
न जाने कितने काम करने हैं
कितने ख्याल पकाने हैं
कितने ख़्वाबों में रंग भरने हैं

हाँ, छुट गयी थी बहुत पहले
एक ग़ज़ल आधी अधूरी-सी
कुछ कहि,कुछ अनकही
कुछ अनसुलझी पहेली-सी

सिरे उसके अब पकड़
कुछ समेट कर धरने हैं

हर बार का बहाना कि बस अभी
फुर्सत अभी ज़रा सी  मिलती है
इस 'अभी' के इंतज़ार की
घड़ी, न जाने कब तक बहलती है
हम सोचते रहते कि बस
अब हिसाब करते हैं

फुर्सत तो मिले ....एक बार ज़रा

Monday 1 July 2013

तू जिए जा मुझे.



लफ़्ज़ों में ढाल ले या खामोश पिए जा मुझे.
जिंदगी हूँ हरेक हाल में तू जिए जा मुझे.

ज़ख्म गहरा मगर दर्द यूँ तमाशा ना बने .
बनने नासूर तक कर सबर कि सिए जा मुझे .

ना टूटेंगे कभी आज़मा ले हमें जितना भी.
अपनी हद से बाहर, दर्द चाहे दिए जा मुझे.

डगमगा ना कदम जाएँ अंजाम की सोच में.
फ़र्ज़ हूँ मैं तेरा, बिना खौफ किए जा मुझे .

बाद में पछताने से भला क्या होगा ऐ इंसाँ.
मौका हूँ मैं तेरा हाथों हाथ लिए जा मुझे .


Saturday 15 June 2013

क्या करूँ समर्पित

क्या करूँ समर्पित 


पितृ दिवस पर 
क्या लिखूँ, क्या करूँ समर्पित 
कैसे दूँ शब्द भावों को मन के 
मात्र बचपन की कुछ यादें नहीं तुम 
कैशोर्य का लड़कपन, यौवन का मार्गदर्शन हो .
हर कदम पर साथ चले जो 
ऐसी घनेरी, स्नेहल छाया हो तुम 
हाँ, मेरे अपने वृक्ष हो तुम 
हर ताप-संताप स्वयं सह
अपनी अमृत धारा से सरसाते 
हाँ मेरे अपने बादल हो तुम 
बचपन से अब तक , हर कदम पर 
स्थिरता दे क़दमों को मुझे संभाला 
निर्भय हो जिस पर पग रखती 
हाँ, मेरे अपने धरातल हो तुम 
क्या लिखूँ, कैसे कुछ शब्दों में 
बखान करूँ तुम्हारा 
क्या करूँ समर्पित 
पितृ दिवस पर 

Saturday 8 June 2013

तन धूप जले


सवैया ( दुर्मिल )


सखि दोपहरी दिन ताप बढ़े, अकुलाय जिया तन धूप जले|

वन कानन भीतर जाय छिपी अब छाहन भी नित जाय छले |

मद में निज जेठ,मही जलती, सगरे जन के मन कोप खले|

घर भीतर बैठ करें बतियाँ कुछ ठंडक हो जब पंख झले||

Tuesday 4 June 2013

विकल प्राण मेरे ..



है कोई नहीं संताप 
फिर क्यों 
विकल प्राण मेरे ..
किस अग्नि में जले आत्मा 
जब तुम हो प्राण मेरे 
आच्छादन बन  अस्तित्व तुम्हारा 
ढाँप रहा मुझ विरहन को 
फिर क्यों और कैसी व्याकुलता 
मन सुलझा दे इस उलझन को 
स्थिरता ऊपर पर भीतर
उथल पुथल प्राण मेरे 
है छद्म अरे यह विरह और 
है भ्रम ये दूरी प्रियतम से 
मन की आँखों को खोल ज़रा 
फिर हर पल उनसे संगम है 
 समझाती कितना इनको पर 
जाते क्यों न बहल प्राण मेरे 

Friday 31 May 2013

गति और ठहराव ...


गति और ठहराव 
1.
गति का वरदान तुम्हें मैं,
स्थिरता का शाप झेलती
भँवर पड़े तेरे पैरों में
मैं ठहराव की आस देखती 

मैं जड़ तुम थे जंगम
कैसे संभव होता संगम
या मुझमें उद्भव हो गति
या तुझमें ठहराव देखती 


2.

नदी थी मैं 
मिला था 
गति का वरदान मुझे 
निरंतर बहना 
नियति  मेरी  
किनारे से  तुम 
बस वहीँ रुके रहे 
मै बढ़ी, बही, छलकी, मचली 
साथ तुम्हे ले चलने को 
व्याकुल था मन 
पर 
तुम न चले 
चलना नियति न थी तुम्हारी 
पर साथ मेरा देने को 
कर लिया तुमने अपना 
विस्तार अनंत 
जहाँ तक तुम चली 
साथ देते रहे मेरा 
पर 
स्थिर बन 

Tuesday 28 May 2013

जुस्तजू

ज़ख्म जुल्मों के तेरे अब, ये दिल न झेल पाएगा 

जुस्तजू में गुजारी जीस्त, जुस्तजू में फ़ना हो जाएगा 


जुर्रत आजमाना चाहता है तू, पेशकदमी-ए-इश्क में

तू ज़रा हद तो खींच के देख, उस पार ही हमें पाएगा.


ज़रखरीद नहीं तेरे हम, कि हिकारत हमसे तू बरते
,
लौटेंगे अब न कभी जो, नरमी से भी बुलाएगा.



जायज़ नहीं हमपे तेरा, यूँ जोर-ए-हक़ जताना


जोर आजमाइश से कहाँ दिलों को जीत पाएगा .

Friday 24 May 2013

अपनी गलती कब मानत है|


दुर्मिल सवैया लिखने का प्रथम प्रयास ..... 


हर बार लरै तकरार करै अपनी गलती कब मानत है|
छिन में छिन जात जिया छलिया छलके सगरे गुर जानत है|
नहिं लाज हया उनको तनि नैन कटारि हिया पर मारत है|
सखि ऐसन ढीठ पिया पर क्यों तन मुग्ध हुआ हिय हारत है|

Wednesday 22 May 2013

एक नया मोड दे.




मेरे हमनशीं कहानियों को, तू अब एक नया मोड दे.
अब बात तेरी मर्ज़ी पे, प्यार दे या मुझे छोड़ दे .

कब इख्तेयार में है मेरे, तुझे चाहना न चाहना,
तू चाहे दवा ए दर्द दे, चाहे तो दिल को तोड़ दे.

रहम औ करम पे तेरे अब, आ ठहर गई है बात हर.
गम के सागर में डुबो मुझे या सारे गम निचोड़ दे.

मेरी दास्ताँ को सुन के जो, अदा से तुम मुस्काते हो,
लाऊं कहाँ से वो सदा, तेरी रूह को जो झिंझोड़ दे.

आसान बहुत है तोड़ना रिश्ते हों या शीशा कोई ,
वो चीज़ कब बनी है जो, टूटे दिलों को जोड़  दे .

Sunday 12 May 2013

दास्ताँ गम की


दास्ताँ  गम की ज़माने को सुनाई  ना गई
सरेआम तेरी रुसवाई ज़माने में कराई न गई 

ज़ख्म कुछ गहरे थे इतने कि न भर पाए कभी 
पीर कुछ ऐसी थी कि दुनिया से छिपाई न गई 

थे खरीदार कहाँ कम इस दुनिया में वफ़ा के 
बारहां हमसे नुमाइश अपनी लगाई न गई 

मसलेहत क्या थी महफ़िल में बुलाने की हमें 
पीठ पीछे क्या हँसी मेरी तुमसे उड़ाई न गई 

एक इशारे पे तेरे फ़ना हो जाते हम पल में 
किश्त दर किश्त मौत हमसे बुलाई न गई 

फैसले अपने हैं और फितरत अपनी -अपनी 
हमसे जफ़ा और तुमसे वफ़ा निभाई न गई 

अश्क मोती थे हमारे न  कि  खारा पानी 
जागीर ये ज़माने पे सरे आम लुटाई न गई 

Thursday 2 May 2013

जो मुरली अधरान धरै सवैया (मत्तगयन्द)


जो मुरली अधरान धरै फिरि कोउ सखी संग बोलत नाहीं|
बांसुरिया संग डाह करै सखि, आह भरै पर रोवत नाहीं|
बेकल हो सुध वे बिसरा, दिन-रात जलै अरु सोवत नाहीं|
मोहक मोहन को छवि सुन्दर, देख हिया कब डोलत नाहीं|

Wednesday 24 April 2013

आँखें .


जुदा मुझसे मुझे कर जो गईं आँखें
मेरी पहचान अब बन वो गईं आँखें .

मुहब्बत की कहानी कब से अटकी
रवाँ अश्कों में कर उसको गईं आँखें

न खौफ़ से जमाने के डरीं ज़रा
न डरके ये झुकीं, अड़ तो गईं आँखें

न थी दास्ताँ बड़ी आसाँ बयाँ करनी
सुनाती मुख़्तसर में जो गईं आँखें

पलक अंदाज  नज़रों से हमें देखा
जिगर से रूह तक बस वो गईं आँखें

खुमारी थी,नशा था, सुर्ख डोरों में
बिना मै के , नशे में खो गईं आँखे

Friday 19 April 2013

मुख़्तसर रात


मुख़्तसर रात थी, लम्हा-लम्हा ढलती रही 
खत्म अफ़साने हुए न, दास्ताँ चलती रही .

न तेरी आँख में अश्क कम,पुरनम चश्म भी मेरे 
रुखसारों पर तेरे मेरे, एक धार सी ढलती रही .

मुहब्बत की दास्ताँ, कैद थी नम पलकों तले 
कतरा कतरा आँख से, कहानियाँ पिघलती रहीं

मंजिलों से फासला अपना रहा यूँ उम्र भर 
हम कदम बढ़ाते रहे, मंजिल परे हटती रही .

तारे टूट गिरते रहे, छीजता रात का दमन रहा, 
ता-शब मेरी सर्द आहों से, चाँदनी जलती रही . 


Saturday 13 April 2013

देखि ढिठाइ ..सवैया ( मत्तगयन्द)



देखि ढिठाइ कभी उनकी, तनि लाज भरी सकुचाय खड़ी हैं|
आँचल सो मुख ढाँपि लियो, नत नैन करै शरमाय जड़ी हैं|
ऊपर-ऊपर रार करैं पर, भीतर वे हरषाय बड़ी हैं|
कान्ह लखी सखियाँ सगरी, उनपे सब नेह लुटाय पड़ी हैं|
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