कस लो अपना स्नेह पाश
कब मुक्ति की आकांक्षी मैं
है प्रिय मुझे
ऐसा ये बंधन
रोम- रोम बंध जाती मैं
निज मन पर रहा
वश कहाँ मेरा
परवश होकर
भटके यह बस
जिस ओर मैं चाहूँ
जिस ओर मैं जाऊं
तुम तक पहुँचाते
मेरे ये पग
दिशा भ्रांत मैं
विवश अनुगामी
स्वेच्छाचारी मन की बन
फिर आ जाती पास तुम्हारे
लो,फिर लो पाश ये कस
वाह !!! बहुत सुंदर रचना,,,
ReplyDeleteRECENT POST : पाँच( दोहे )
मन मधुरित करने वाली पंक्तियाँ.
ReplyDeleteखूसूरत अभिव्यक्ति बधाई
ReplyDeleteप्रेम मोहबंध जादुई होता है
ReplyDeleteसुंदर मुक्त भाव लिए कविता.
ReplyDeleteशुभकामनाएं
वाह ..
ReplyDeleteखूबसूरत !
aapki kavita ke bhaw ka jabab nahi ..
ReplyDeletesundar!!
वाह बहुत खूब |
ReplyDeleteप्रेम में डूबी हुई कविता... बहुत सुंदर
ReplyDeletewaah.. romantic
ReplyDeleteinteresting creation Shalini ji !
ReplyDeleteअसल मुक्ति तो प्रेम पाश में बंधने के बाद ही आती है ...
ReplyDeleteभाव मय प्रस्तुति ...
समर्पित प्रेम में डूबी बहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeletehow romantic line.......
ReplyDeleteyour most welcome on my blog.
http://iwillrocknow.blogspot.com/