Wednesday 2 December 2015

लगाव


लगाव तुमसे
अलग- सा ही है कुछ
अदृश्य, अपरिभाषित, अपरिमित
अकल्पित हैं सीमायें इसकी
है कौन -सा आकर्षण जो
विकर्षण की हर सीमा तक जाकर भी
फिर - फिर तोड़
समीपता की हर एक सीमा
समाहित कर देता है मुझे तुममें
सोचती ... कुछ तो कहा होगा किसी ने
कुछ नाम तो दिया होगा
इस आकर्षण को
कुछ शब्द परिभाषित इसे
करते तो होंगे
ऐसे ही अनुभव
और भी रखते तो होंगे
पर हर बार .... कोई उत्तर नहीं मिल पता
परिभाषित कैसे करूँ इसे
रूप नया धर
हर बार सामने आता
अब छोड़ दिया इसे कुछ नाम देना
क्योंकि बहुत अलग है
मेरा
तुमसे लगाव।
Shalini rastogi

प्रेम पगे दोहे


बैरी बन बैठा हिया, जाय बसा पिय ठौर ।
गात नहीं बस में रहा, कहूँ करे कुछ और ।।

विद्रोही नैन हुए, सुनें नहीं इक बात ।
बिन पूछे पिय से लड़े, मिली जिया को मात ।।

बन कस्तूरी तन बसा , छूटे गात सुगंध ।
लाख छिपाया ना छिपा, प्रेम बना मकरंद ।।

नैनों से छलकी कभी, फूटी कभी बन बैन ।
प्रीत बनी पीड़ा कभी, कभी बन गई चैन ।।

Sunday 11 October 2015

सोलह सिंगार ( कुण्डलिया)


कजरा गजरा डाल कर, कर सोलह सिंगार।

गोरी बैठी सेज पर, करने को अभिसार।।


करने को अभिसार, राह पर पलक बिछाए।


पल-पल बीते पहर, बिना पलकें झपकाए।।


किस सौतन का आज, बना जादूगर गजरा।


तडपत बीती रैन, बहा नयनन से कजरा।|

कजरा नैनन से बहा ( कुण्डलिया)

कजरा नैनन से बहा, कारे पड़े कपोल।

निर्मोही पर प्रीत का, जान न पाया मोल।।

जान न पाया मोल, रहा परदेसी होकर।

गये विरह में वर्ष, रोय निज चैना खोकर||

देखी अंसुवन धार, बरसना भूले बदरा।

पिया बसे जब नैन, कहाँ ठहरेगा कजरा ||

निज भाषा ( कुण्डलियाँ)

बरसों हैं बीते मगर,मिला न वह सम्मान।
निज भाषा निज भूमि पर, झेल रही अपमान।।
झेल रही अपमान, बढ़े दिन-दिन अंग्रेजी।
भेज दिए अंग्रेज, न अब तक भाषा भेजी।।
अब तक आशा शेष, गये दिन कल, कल, परसों।
पर भाषा का राज, सहे मन कितने बरसों।।

मोहन रूप ( कुण्डलिया)


अपनी छवि बना कर जो, दर्पण देखा आज|
देख रूप अपना खुद ही, गोरी करती नाज||
गोरी करती नाज, चली इठला कर रानी|
साजन से मनुहार, कराऊंगी मनमानी||
अपनी छवि को भूल, सजन को ताके सजनी|
मोहन रूप निहार, सखी सुधि खोई अपनी ||

सजना चतुर सुजान ( कुण्डलिया)


बात करे हर ले जिया, बन भोला अनजान |
कौन कहे उनकी सखी, सजना चतुर सुजान ||
सजना चतुर सुजान, करे पल-पल मनमानी|
नैन मिला ठग जाय, ठगी रह जाय सयानी ||
पल में हिय बिध जात, अचूक है उसकी घात|
मीठा-सा हो दर्द, याद कर पिया की बात ||

Monday 7 September 2015

दो दोहे

 शातिर दो नैना बड़े, लड़ें मिलें दिन रैन|
नैनन के इस मेल में, जियरा खोवे चैन||





पाती अँसुवन से लिखी, बदरा पर दिन-रात|
पवन पीया तक ले गई, बरस सुनाई बात ||

प्यास थी मैं

प्यास थी मैं 
सहरा था तू
शुष्क, रसहीन, विरक्त, निर्मोही-सा 
न... नहीं भरमाया तूने मुझे 
मैं स्वयं को ही भरमाती रही
खुद को ही छलावे दिखलाती रही
दो बूँद पानी की आस मुझे
जाने कहाँ भटकाती रही
हाथ बढ़ा हर बार
छू लेना चाहा ... उस भ्रामक आद्रता को
जो नहीं थी
मेरे भाग्य और तुम्हारे स्वभाव में
ज़िन्दगी से दूर होते
और .. सूखती, चटकती, बिखरती रही
न तृप्त हो पाई कभी
क्योंकि
सहरा थे तुम
प्यास थी मैं
Shalini rastogi

Wednesday 2 September 2015

ढलते ढलते एक आँसू, (ग़ज़ल)


ढलते ढलते एक आँसू, रुखसार पे यूँ जम गया 
बहते बहते वख्त का दरिया कहीं पे थम गया 

पल्कों पे आके ख्वाब इक यूँ ठिठक के रुक गया,
नींद में जैसे अचानक, मासूम बच्चा सहम गया 

नींद, चैन औ सुकूँ सब लूट कर वो ले गया 
लोग कहते सब्र कर कि जो गया वो कम गया 

वो जान थी जो छोड़कर चुपके से हमको थी गई 
बदगुमानी में लगा यूँ, सीने से जैसे ग़म गया ...

यूँ प्यार ने तेरे किया दुनिया से बेगाना हमें 
छोड़ दुनिया जोग में तेरे ये मनवा रम गया.

रीतापन (क्षणिकाएँ)


1.
कभी छोड़ देना ज़रा
अपनी तन्हाइयों को
मेरी खामोशियों के साथ
फिर देखना दोनों
कितनी बातें करते हैं

2.
अखर जाता है अक्सर 
भावों का न होना 
दुःख, पीड़ा, कसक, बेचैनी 
हाँ, करती तो है 
व्याकुल 
पर कुछ तो होता है
मन के भीतर
पर रीतापन अंतस का अक्सर
जाता है क्यों
अखर ...

नैन ( सवैया )

नैन लड़ें अरु नैन मिलें, कब रार करें कब मीत बनाएँ |

प्रीत सुधा बरसाय कभी, विष बान बनें हिय में बिध जाएँ|


ढीठ बने अड़ जावत तो भर लाज कभी नयना सकुचाएँ|


बैन बने हिय की बतियाँ, रह मौन सखी सगरी बतलाएँ

Shalini Rastogi


Wednesday 3 June 2015

तल्खियाँ ( gazal)


हालात अक्सर ज़ुबानों पर, तल्खियाँ रख देते हैं,
रेशमी से अहसास पर ये, चिंगारियां रख देते हैं .
मुश्किल नहीं इस कदर यूँ तो, ये बयाँ जज़्बात का
ये लफ्ज़ आ बीच में क्यों, दुश्वारियाँ रख देते हैं.
मासूमियत छीन कर ज़ालिम, दाँव ये ज़माने के
भोले भाले से चेहरों पर, अय्यारियां रख देते हैं.
इक बार फिर जी लें जी भर, बचपन का वो भोलापना.
कुछ पल को इक ओर अपनी, हुशियारियाँ रख देते हैं.
दीवार क्यों ये अना की, आए हमारे बीच में,
कुछ भूल जाओ तुम, परे हम, खुद्दरियाँ रख देते हैं. 

Wednesday 15 April 2015

बेमौसम बरसात (दोहे)



धरती माँ की कोख में, पनप रही थी आस |

अग्नि बन नभ से बरसा, इंद्रदेव का त्रास ||



व्याकुल हो इक बूँद को, ताके कभी आकास|

कभी बरसते मेह से, टूटे सारी आस ||

Friday 27 March 2015

उथल - पुथल


उथल पुथल तो होनी ही थी
आखिर
बाशिंदे थे हम 
दो अलग दुनियाओं के 
न कभी एक थी हमारी धुरी 
न एक क्षितिज अपना 
अपने अपने केंद्र के गिर्द ही 
घूम रहे थे हम| 
प्रत्याकर्षण 
न नियति थी अपनी 
न प्रकृति 
अपने गुरुत्वाकर्षण के विरूद्ध जा 
तोड़े थे हमने नियम 
तो 
सारी कायनात में 
मचनी थी 
उथल पुथल 

Tuesday 10 March 2015

सूत्र

कितने सूत्र 
गुंथे परस्पर 
और बन गयी 
एक डोरी 
बंध गए 
मजबूत बंधन 
और फिर किसी एक बात पर 
ज़रा से अविश्वास पर 
चटक कर टूटा क्या एक सूत्र 
ढीले पड़ गए सब 
रिश्तों के बंध 
बेगाने बनते गए यूँ सम्बन्ध
लो देख लो कैसे 
एक एक कर 
टूट गए 
जाने कितने सूत्र 


मैं चल रही थी


मैं चल रही थी 
साथ लिए 
न जाने कितने भँवर 
पैरों में 
और कितने सैलाब 
आँखों में
सर उठते थे मन में
न जाने कितने तूफां
हर बार
भीतर से उठती लहर कोई
बहा ले जाती मुझे
मुझसे ही दूर ... बहुत दूर
आशंकाओं के झंझावात तो
उठ रहे थे भीतर
सब कुछ उथल पुथल
सब बिखरा हुआ
वर्ना बाहर तो था सब
शांत , अडोल, अविचल
बस एक अकेली ... मैं
चल रही थी 

Friday 27 February 2015

मैं देह , तुम प्राण

मैं देह , तुम प्राण
अनुभव होता है आजकल 
देह का प्राण से विलग होना 
बड़ी ही जटिल है ..  यह प्रक्रिया
आखिर रोम-रोम हम बंधे  हैं साथ 
हर बंध टूटने का अहसास 
तड़पा देता है 
कर देता विह्वल 
हर साँस देह में अटक कर 
कुछ और रुक जाना चाहे है 
थाम लेना चाहती है देह 
प्राणों के संसर्ग को 
कुछ और पल .... कुछ और क्षण 
जैसे तुम्हारे कदमों से बंधे हैं 
मेरी साँसों के धागे 
दूर जाता तुम्हारा हर कदम 
क्षीण कर जाता जीवन की आस 
आखिर .. मैं देह , तुम प्राण !


Thursday 26 February 2015

आत्म साक्षात्कार


आत्म साक्षात्कार
मुश्किल होता है बड़ा
करना अपना सामना
दूसरों का सामना तो फिर भी
बखूबी कर लेता इंसान
कुछ दिखावटी व्यवहार,
कुछ बनावटी मिठास
वो आत्मीय मुस्कराहट
न जाने कितनी सामग्रियों से सज़ा कर
पेश करते खुद को
दुनिया के दस्तरख्वान पर
एक लज़ीज़ पकवान की तरह
लगाता नुमाइश अपनी
गिनवाता अपनी खूबियाँ
अपने आदर्श, सभ्य, नैतिक  रूप के पीछे
छिपा जाता हर बार
अपना वह आदिम मूल स्वभाव
पर खुद से कहाँ छिपा पाता है खुद को
यह वो आइना  है जहाँ
वह और उसकी आदिम इच्छाएँ
होते हैं रू-ब-रू  ... बे-लिबास
जहाँ खुद के आदर्श, मूल्य, नैतिकता
उसे ढोंगी ठहरा करते हैं अट्टहास
खूबसूरत मुखौटे
नोच फैंकती हैं  उंगलियाँ
तब वह खुद ही आइना और खुद ही अक्स बन जाता
खुद अपनी ही आवाजें
कसती हैं तंज
तब खुद को ही बहला- फुसला कर
किसी तरह चुप करा कर
मन की कब्र के नीम अँधेरे में
कर देते हैं दफ्न
क्योंकि मुश्किल बड़ा है
खुद को देखना,सुनना
और करना आत्म-साक्षात्कार







Monday 23 February 2015

मैं मौन बाँचती हूँ


तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |
शब्दों की कैद में कब, मैं भाव बांधती हूँ |

शब्दों के दायरे में, भावों को बांधना क्यों?
नाप-तोल करके, ये प्रेम आंकना क्यों ?
तुम प्रेम-प्रेम कहते, मैं मन में झांकती हूँ |
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |

सागर की लहरों पर ज्यों बाँध का बनाना ,
आँधियों  को  जैसे,  हो  रास्ता  बताना ,
भावों पे शब्दों के, कब पाल तानती हूँ ?
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |


तुम आँखों से प्रेम कहना, आँखों से मैं सुनूँगी'
उस मूक प्रेम पल को, रह मूक ही गुनूँगी ,
मोती सा हरेक पल वो, आँचल में टाँकती हूँ|
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ 

शब्दों की स्याही जब, भाव पे जम जाए,
दिन से उजले भावों को, रात-सा बनाए,
दिन उजाला करने को मैं रात माँझती हूँ|
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ 

मौन


तुम शब्दों में
ढूंढते रहे भावनाएँ
मैं मौन बाँचती रही

मौन ही गूढ़
मौन ही शाश्वत
मौन ही तो है सबसे मुखर
चुक जाते हैं शब्द अक्सर
बन जाते हैं पंगु
असमर्थ रह जाते
करने में वहन  भावनाएँ |
तब चारों ओर पसरा यह मौन ही
हो उठता है मुखर
बोलता, चीखता, गाता, गुनगुनाता है|
अपनी अदृश्य कलम से
हर भाव चेहरे पर लिख जाता है |
बस, कुछ पल तो बैठो पास
पढ़ो, इस मौन को मेरे
जान पाओगे भाव
छिपे.... गूढ़ अंतस में कहीं
क्यों चाहते कि कर दूँ व्यक्त
शब्दों में


Sunday 22 February 2015

दोहे विरह के



सावन भी सूखा लगे, पतझड़ लगे बहार |
सजना सजना के बिना, सखी लगे  बेकार ||

इधर बरसते मेघ तो , उधर बरसते  नैन |
इस जल बुझती प्यास अरु, उस जल जलता चैन |

आकुल हिय की व्याकुलता, दिखा रहे हैं नैन|
प्रियतम नहीं समीप जब, आवे कैसे चैन||

नैनन अश्रु धार ढरै, हिय से उठती भाप|
दिन ढले ही आस ढले, रात चढ़े तन ताप||


Friday 20 February 2015

तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ.

तुम कहते हो मैं, प्रेम लिखूँ.
 जो जिया नहीं, जो गुना नहीं 
कैसे पल वो साकार लिखूँ.
तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ.

प्रेम की पीड़ा, प्रेम का हर्ष 
सर्वस्व समर्पण का उत्कर्ष 
अनाभूत उस भाव का प्रकर्ष 
बिन भोगे कैसे महसूस करूँ 

 तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ ..

यह वो अमृत जो चखा नहीं 
वो  विषपान  जो किया नहीं 
जब खिला नहीं, जब जला नहीं 
ये अंतर्मन तो क्या भाव धरूँ

तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ

वो प्रेम दीवानी मीरा के 
चिर वियोगिनी राधा के
हीर, शीरीं औ लैला के   
जैसी न  मैं स्वीकार करूँ 


तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ

Saturday 24 January 2015

माँ सरस्वती (दोहे)



वसंत पंचमी पर माँ सरस्वती के चरणों में दो दोहे
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
वर दो माता शारदे, विद्या का दो दान |
ज्ञान बुद्धि से युक्त हों, मिटे समूल अज्ञान ||

श्वेत कमल आसन तेरा, धारे वीणा हाथ|
धवल वस्त्र धारण करे, ब्रह्मा जी का साथ ||

वसंत

वसंत पर एक सवैया 
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देख सजी धरती धर चूनर खेत हुए सगरे अब पीले|


पीत भई पगड़ी सज के मन, देख लुभावत लोग सजीले|


झाँक रहे छिप चूनर ओट, सखी सजना दुइ नैन रसीले|


आय गए सज ठाठ दिखा,मन लेत लुभाय वसंत छबीले||



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