आखिर
बाशिंदे थे हम
दो अलग दुनियाओं के
न कभी एक थी हमारी धुरी
न एक क्षितिज अपना
अपने अपने केंद्र के गिर्द ही
घूम रहे थे हम|
प्रत्याकर्षण
न नियति थी अपनी
न प्रकृति
अपने गुरुत्वाकर्षण के विरूद्ध जा
तोड़े थे हमने नियम
तो
सारी कायनात में
मचनी थी
उथल पुथल
नियम तोड़ने की वजह ही काफी है कुछ हाने की ... नहीं तो अपनी धुरी के कौन भटकता है ...
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