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Thursday, 19 September 2024

स्वीकार्यता !

 स्वीकार्यता !



आजकल
थम – सी गई गई है … लड़ाई
दिल और दिमाग के बीच|
क्या हो गया है .... समझौता?
या शायद बढ़ गई है …….
परिस्थितियों के प्रति .... स्वीकार्यता !
दोनों के मध्य,
अब नहीं होती बहस,
सहन कर लेता है सब,
अंतर्मन ..... बिना किए कोई प्रश्न|
न कोई तर्क, न वितर्क,
न कोई जद्दोजहद -
खुद को साबित करने की सही,
या किसी और को गलत,
मिट रही है ज़िद|
क्या कहा जाए इसे
निर्वात या निर्द्वंद्व
यह है विरक्ति
या आसक्तियों का शमन|
नहीं कुछ भी ऐसा अब
जिसकी लगे अनिवार्यता ..
जो है, जैसा है
अब उसके प्रति ... स्वीकार्यता !
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

बातों के झरोखों से ..


बातों के झरोखे
बंद नहीं होने चाहिए
रिश्तों के मकानों में .... कभी-भी |
रिश्तों के बीच,
खड़ी होती दीवारों,
बंद होते दरवाज़ों में,
बनीं रहें ये दरारें |
आते रहें झोंके,
धीमी-धीमी सदाएँ,
कुछ शिकायतों की फुसफुसाहटें,
कुछ गिला, थोड़े शिक़वे |
पहचान है यही,
कि रिश्ता अभी मरा नहीं |
कि अभी उधर है कोई,
जो नाराज़ हो भले ही ,
पर अब भी करता है फ़िक्र,
रखता है उम्मीदें अब भी |
तुम्हारी एक आवाज़ पर
दिल धड़क जाता है उसका ... अब भी |
बातों के ये वातायन ही,
करते है संचारित .....
प्राण-वायु |
जीवित रह पाते हैं जिससे,
रिश्ते !
बनी रहती हैं संभावनाएँ
पुनः जुड़ाव की
इन्हीं
बातों के झरोखों से .. 
~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी 

 

बेमुकम्मल


बहुत जरूरी हैं ....
कुछ बेतरतीबियाँ,
थोडा बिखराव, थोडा बेशऊरापन भी|
थोडा बेमुकम्मल होना,
बने रहने देता है हमें ... इंसान|
इंसान ... जिसमें सुधार की है थोड़ी गुंजाइश,
इंसान ... जो मुक़म्मल होने के लिए करता आज़माइश,
इंसान ... जो अभी नहीं बना है देवता,
इंसान ... जिसमें नहीं है प्रतिमाओं से सुघढ़ता |
अपनी हर ग़लती के बाद पछताना,
फिर सुधरने के लिए कुछ और ज़ोर लगाना,
कभी अपने बिखराव में ही सिमट जाना,
कभी सब कुछ समेटने की चाहत में बिखर जाना|
यही अधूरापन,
यही पूरा होने की जद्दोजहद,
नहीं होने देती ऊसर,
बनाए रखती है नमी,
जिलाए रखती है आस ....
नई कोंपले फूटने की ... 
बंजर ज़मीन पर
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी 

 

Thursday, 22 December 2022

इल्लियाँ और तितलियाँ

 बेचैन हैं कुछ इल्लियाँ
तितलियाँ बन जाने को
कर रही हैं पुरज़ोर कोशिश
निकलने की
कैद से अपने कोकून की।
वे काट कर चोटियाँ,
लहरा रही हैं ,
आज़ादी का परचम।
गोलियाँ और गालियाँ खाकर भी
कर रही हैं आवाज़ बुलंद ।
वे लड़ रही हैं अँधेरे से,
हिजाब के पहरे से,
इल्म औ अना की रोशनी से,
जगमगाना चाहती हैं ,
अपना आसमाँ,
जिसमें उड़ सकें वे ,
अपने रंगबिरंगे पंख फैलाए,
बेख़ौफ़।
हाँ, अब तितलियाँ बन जाना चाहती हैं,
कुछ इल्लियाँ।
वहीं बेचैन हैं कुछ तितलियाँ ,
फिर से इल्लियाँ बन जाने को।
वे खुद पोत रही हैं,
जहालत और ज़िल्लत की स्याही
अपने रंगीन पंखों पर।
वे गुम हो जाना चाहती हैं फिर
ग़ुलामी के गुमनाम गलियारों में,
दफ़न हो जाना चाहती हैं
कट्टरता के मकबरों में ,
फिर तान लिए उन्होंने
हिजाब के काले शामियाने
खुले आसमानों तले,
वो फिर अपने परों को समेट,
अपने कोकून में घुस
इललियाँ बन जाना चाहती हैं ..... कुछ तितालियाँ।
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

औरत की कहानी

 औरत की कहानी


~~~~~~~~~
एक औरत ने,
औरतों के लिए ,
एक औरत की कहानी लिखी |
कुछ आशाएँ, थोड़े सपने, कुछ बेगाने, थोड़े अपने
धड़कती छतियाँ, अकेली रतियाँ, अधूरी बतियाँ , कुछ प्रेम की पतियाँ ,
ख्वाहिशें जानी-पहचानी सी कुछ, कुछ थीं जो अनजानी लिखीं|
एक औरत ने, औरतों के लिए, एक औरत की कहानी लिखी.... कुछ बचपन के उल्लास बिखेरे,
कुछ यौवन के अनुराग उकेरे,
थोड़े प्रौढ़ हुए - से सपने, कुछ किशोर नादानी लिखी |
कभी न बीता जो बचपन, पल में बीती वो जवानी लिखी |
एक औरत ने, औरतों के लिए, एक औरत की कहानी लिखी ....

हँसते होंठो के पीछे उदासी की परत ,
पनीली आँखों के सपनों की झलक ,
लहराती लटों में रातों की स्याही
कहीं जुल्फों पर जो, चाँदी थी उतर आई ,
रंगत आबनूसी, कहीं सुनहरी – रुपहली - आसमानी लिखी |
कहीं तरुणाई की चमक , तो कहीं झुर्रियों भरी पेशानी लिखी |
एक औरत ने, औरतों के लिए, एक औरत की कहानी लिखी ......

आटे गूँधते गूँधी गई संग ख्वाहिशें,
रोटी की संग आँच पर सुंध महक उठीं चाहतें,
बुहारी लगाते बुहार दीं जो, मन से बाहर हसरतें,
ऊन से सलाइयों पर, ख़्वाबों की उतरीं बुनावटें ,
मसरूफियत का खालीपन , बेचैनियों की इत्मिनानी लिखी
जो कही नहीं थी कभी किसी से, उस बात की तर्जुमानी लिखी |
एक औरत ने, औरतों के लिए, एक औरत की कहानी लिखी ......

बखूबी निभाए जा रहे रिश्तों का खोया अपनापन,
फ़र्ज़ का निभाव करते, मन में उतरा सूनापन,
करवट बदलती रात में, मीठी नींद का ख्वाब,
अपने घर में, अपने लिए एक कोने की तलाश ,
सर्वस्व समर्पण का सुकून, सब खोने की परेशानी लिखी|
कहीं मुश्किलों की इबारतें, कहीं चैन – आसानी लिखी|
एक औरत ने, औरतों के लिए, एक औरत की कहानी लिखी ......
~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

उलझन

 मैं उलझी हूँ सुलझाने में

उलझे से ताने-बाने में,
ये दुनिया या वो दुनिया
गुत्थी समझ न पाने में।
गुथ चुके सिरे आपस में यूँ
ओर-छोर न मिल पाए
कैसे बुन पाऊँ प्रेम चदरिया
रास्ता कोई तो दिखलाए,
दो दुनियाओं के बीच फँसी,
दुविधा में कैसी आन पड़ी,
न इस जग में रह पाने में,
न उस जग में जा पाने में।
अज्ञात खींचता धागा तो
ढीले पड़ते दुनियावी धागे
दुनिया के धागे तानूँ तो
टूटे जाते उससे नाते,
यहाँ वहाँ, इसके - उसके
गुच्छों को सुलझाने में,
उस तक जाऊँ तो जग छूटे
जग को चाहूँ तो वो रूठे,
किससे जोड़ूँ, किससे तोड़ूँ
किसको पाऊँ , किसको छोडूँ
कैसे दो जग के तार जुड़ें,
ये समझने में, समझाने में
~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

जाने क्यों एकाकी मैं?

 


जाने क्यों एकाकी मैं?

जीवन की इस भीड़-भाड़ में,

रेलमपेल औ भाग-दौड़ में,

कहीं बची न बाकी मैं|

जाने क्यों एकाकी मैं?

साँझ ढले जब वज़्म सजे,

प्याले दर प्याले दौर चले,

कहीं दर्द में भीगी-भीगी शायरी,

कहीं सुर-लय-ताल से ग़ज़ल सजे|

कभी रेत कभी शबनम बन बिखरे,

जज्बातों से अल्फाज़ सजे |

कहीं मय छलके, कहीं अश्क़ बहे,

हँसी, ठहाके, आँसू पीड़ा,

सब हुए शराबी बहके-बहके|

पर अपनी मधुशाला में,

मय, मीना न साक़ी मैं !

सुबह-शाम-दिन-दोपहरी,

जाने क्यों एकाकी मैं?

~~~~~~~~

शालिनी रस्तौगी

22/12/2022

बेकार की बातें

काम की बातें ,
अक्सर कर देती हैं बोझिल ...
मन और माहौल को
तो चलो,
फिर कुछ बेकाम-बेकार सी बात करते हैं
किसी बात पर, बेबात ठहाके लगाते हैं,
किसी बात पर होंठ दबाकर मुस्कुराते हैं
कुछ अटपटी बातों को
खट्टी-मीठी गोली की तरह
मुँह में घुमाते हुए
चटकारे लगा खुलकर खिलखिलाते हैं...।
सारे दिन की थकन से,
बेमतलब-सी अनबन से
किसी की बात के कसैलेपन से
जो घुल गई है मुँह में कड़वाहट
चूरन-सी चटपटी बातों के चटाखे लगा
कसैलापन भुलाते हैं।
बातों के गोलगप्पों में ,
मज़ाक की चटनी लगा,
चटपटे चुटकुलों का पानी भर
आज बातों के चटोरे बन जाते हैं।
चलो दोस्त
कुछ बेकार की बातें बनाते हैं💝😘
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
12/12/22
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Thursday, 19 May 2022

औरत की आवाज़

 औरत की आवाज़


औरत की आवाज़ हूँ मैं ,

हमेशा से पुरज़ोर कोशिश की गई,

मुझे दबाने की ,

हमेशा सिखाया गया मुझे ....... सलीका ,

कितने उतार-चढ़ाव के  साथ,

निकलना है मुझे  |

किस ऊँचाई तक जाने की सीमा है मेरी ,

जिसके ज्यादा ऊँची होने पर मैं,

कर जाती हूँ प्रवेश

बदतमीज़ी की सीमा में ... |

कैसे है मुझे तार सप्तक से मंद्र तक लाना ,

कब है मुझे ख़ामोशी में ढल जाना ,

सब कुछ सिखाया जाता है ... प्रारंभ से ही |

कुछ शब्दों का प्रयोग

जिन्हें अक्सर प्रयोग किया जाता है

औरत-जात के लिए

निषिद्ध है मेरे लिए

क्योंकि एक औरत की आवाज़ हूँ मैं |

अन्याय, अत्याचार या अनाचार के विरोध में

मेरा खुलना

इजाज़त दे देता है लोगों को

लांछन लगाने की

मेरा चुप रहना, घुटना, दबना सिसकना ही

दिलाता है औरत को

एक देवी का दर्ज़ा ,

मेरे खुलते ही जो बदल जाती है

एक कुलच्छिनी कुलटा में |

मुझ से निकले शब्दों को हथियार बना

टूट पड़ता है यह सभ्य समाज

सभी असभ्य शब्दों के साथ

उस औरत पर

खामोश कर देने को मुझे

हाँ

एक औरत की आवाज़ हूँ मैं

सिसकी बन घुटना नहीं चाहती

चाहती हूँ गूँजना

बनकर  .............. ब्रह्मनाद  |

 

अदृश्य दीवार

अदृश्य दीवार


 हाँ , दिखती तो नहीं

आँखों के समक्ष
कोई बंदिश, कोई बाड़, कोई दीवार ,
साफ़-साफ़ दिखती है
आमंत्रण देती दुनिया
पास बुलाता उन्मुक्त खुला आकाश
पर कदम बढ़ाते ही
उड़ने को पंख फड़फड़ाते ही
टकरा जाते हैं पाँव
उलझने लगते हैं पंख
आखिर क्या है वो
जिससे टकरा लौट आते हैं
ख्वाब बार-बार
क्या खड़ी है मेरे
और उस दुनिया के बीच
कोई अदृश्य दीवार
~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
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