स्वीकार्यता !
Thursday, 19 September 2024
स्वीकार्यता !
बातों के झरोखों से ..
बंद नहीं होने चाहिए
रिश्तों के मकानों में .... कभी-भी |
रिश्तों के बीच,
खड़ी होती दीवारों,
बंद होते दरवाज़ों में,
बनीं रहें ये दरारें |
आते रहें झोंके,
धीमी-धीमी सदाएँ,
कुछ शिकायतों की फुसफुसाहटें,
कुछ गिला, थोड़े शिक़वे |
पहचान है यही,
कि रिश्ता अभी मरा नहीं |
कि अभी उधर है कोई,
जो नाराज़ हो भले ही ,
पर अब भी करता है फ़िक्र,
रखता है उम्मीदें अब भी |
तुम्हारी एक आवाज़ पर
दिल धड़क जाता है उसका ... अब भी |
बातों के ये वातायन ही,
करते है संचारित .....
प्राण-वायु |
जीवित रह पाते हैं जिससे,
रिश्ते !
बनी रहती हैं संभावनाएँ
पुनः जुड़ाव की
इन्हीं
बातों के झरोखों से ..
बेमुकम्मल
कुछ बेतरतीबियाँ,
थोडा बिखराव, थोडा बेशऊरापन भी|
थोडा बेमुकम्मल होना,
बने रहने देता है हमें ... इंसान|
इंसान ... जिसमें सुधार की है थोड़ी गुंजाइश,
इंसान ... जो मुक़म्मल होने के लिए करता आज़माइश,
इंसान ... जो अभी नहीं बना है देवता,
इंसान ... जिसमें नहीं है प्रतिमाओं से सुघढ़ता |
अपनी हर ग़लती के बाद पछताना,
फिर सुधरने के लिए कुछ और ज़ोर लगाना,
कभी अपने बिखराव में ही सिमट जाना,
कभी सब कुछ समेटने की चाहत में बिखर जाना|
यही अधूरापन,
यही पूरा होने की जद्दोजहद,
नहीं होने देती ऊसर,
बनाए रखती है नमी,
जिलाए रखती है आस ....
नई कोंपले फूटने की ...
Thursday, 22 December 2022
इल्लियाँ और तितलियाँ
बेचैन हैं कुछ इल्लियाँतितलियाँ बन जाने कोकर रही हैं पुरज़ोर कोशिशनिकलने कीकैद से अपने कोकून की।लहरा रही हैं ,आज़ादी का परचम।गोलियाँ और गालियाँ खाकर भीकर रही हैं आवाज़ बुलंद ।वे लड़ रही हैं अँधेरे से,हिजाब के पहरे से,इल्म औ अना की रोशनी से,जगमगाना चाहती हैं ,अपना आसमाँ,जिसमें उड़ सकें वे ,अपने रंगबिरंगे पंख फैलाए,बेख़ौफ़।हाँ, अब तितलियाँ बन जाना चाहती हैं, कुछ इल्लियाँ।वहीं बेचैन हैं कुछ तितलियाँ ,फिर से इल्लियाँ बन जाने को।वे खुद पोत रही हैं,जहालत और ज़िल्लत की स्याहीअपने रंगीन पंखों पर।वे गुम हो जाना चाहती हैं फिर ग़ुलामी के गुमनाम गलियारों में,दफ़न हो जाना चाहती हैं कट्टरता के मकबरों में ,फिर तान लिए उन्होंनेहिजाब के काले शामियानेखुले आसमानों तले,वो फिर अपने परों को समेट,अपने कोकून में घुसइललियाँ बन जाना चाहती हैं ..... कुछ तितालियाँ।~~~~~~~~शालिनी रस्तौगी
औरत की कहानी
औरत की कहानी
उलझन
मैं उलझी हूँ सुलझाने में
जाने क्यों एकाकी मैं?
जाने क्यों एकाकी मैं?
जीवन की इस भीड़-भाड़ में,
रेलमपेल औ भाग-दौड़ में,
कहीं बची न बाकी मैं|
जाने क्यों एकाकी मैं?
साँझ ढले जब वज़्म सजे,
प्याले दर प्याले दौर चले,
कहीं दर्द में भीगी-भीगी शायरी,
कहीं सुर-लय-ताल से ग़ज़ल सजे|
कभी रेत कभी शबनम बन बिखरे,
जज्बातों से अल्फाज़ सजे |
कहीं मय छलके, कहीं अश्क़ बहे,
हँसी, ठहाके, आँसू पीड़ा,
सब हुए शराबी बहके-बहके|
पर अपनी मधुशाला में,
मय, मीना न साक़ी मैं !
सुबह-शाम-दिन-दोपहरी,
जाने क्यों एकाकी मैं?
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
22/12/2022
बेकार की बातें


Thursday, 19 May 2022
औरत की आवाज़
औरत की आवाज़
औरत की आवाज़ हूँ
मैं ,
हमेशा से पुरज़ोर
कोशिश की गई,
मुझे दबाने की ,
हमेशा सिखाया
गया मुझे ....... सलीका ,
कितने उतार-चढ़ाव
के साथ,
निकलना है मुझे |
किस ऊँचाई तक
जाने की सीमा है मेरी ,
जिसके ज्यादा
ऊँची होने पर मैं,
कर जाती हूँ
प्रवेश
बदतमीज़ी की सीमा
में ... |
कैसे है मुझे
तार सप्तक से मंद्र तक लाना ,
कब है मुझे
ख़ामोशी में ढल जाना ,
सब कुछ सिखाया
जाता है ... प्रारंभ से ही |
कुछ शब्दों का
प्रयोग
जिन्हें अक्सर
प्रयोग किया जाता है
औरत-जात के लिए
निषिद्ध है मेरे
लिए
क्योंकि एक औरत
की आवाज़ हूँ मैं |
अन्याय, अत्याचार या अनाचार के विरोध में
मेरा खुलना
इजाज़त दे देता
है लोगों को
लांछन लगाने की
मेरा चुप रहना, घुटना, दबना सिसकना
ही
दिलाता है औरत
को
एक देवी का
दर्ज़ा ,
मेरे खुलते ही
जो बदल जाती है
एक कुलच्छिनी
कुलटा में |
मुझ से निकले
शब्दों को हथियार बना
टूट पड़ता है यह
सभ्य समाज
सभी असभ्य
शब्दों के साथ
उस औरत पर
खामोश कर देने
को मुझे
हाँ
एक औरत की आवाज़
हूँ मैं
सिसकी बन घुटना
नहीं चाहती
चाहती हूँ
गूँजना
बनकर .............. ब्रह्मनाद |
अदृश्य दीवार
अदृश्य दीवार
हाँ , दिखती तो नहीं