मन मेरा किस पार चला
छोड़कर अपना किनारा,
तोड़कर बंधन यह सारा,
खोलकर चिंतन की नौका,
ले मनन पतवार चला
१.
न कोई दिशा, न कोई लक्ष्य है,
न पथ कोई, न पता समक्ष है,
किस मार्ग से जाऊँ, बताए,
कौन गुरु जो ऐसा दक्ष है ?
अनसुलझे प्रश्नों का ये, सिर पे ले अंबार चला
मन मेरा किस पार चला
२.
कौन अपनी ओर खींचता?
वहाँ कौन है मुझको बुलाता ?
किस आकर्षण से बँधी जो,
अज्ञात होकर भी लुभाता ?
अप्रत्यक्ष को पाने को मन यह, देखो तज के संसार चला|
मन मेरा किस पार चला ....
३
ये जग कब-कैसे छूटेगा?
ये बंधन कैसे टूटेंगे?
माया-मोह और जड़ता ये,
दस्यु कब तक मन लूटेंगे?
विद्रोह, विरक्ति, व्याकुलता, द्वंद्व यह अपरंपार चला|
मन मेरा किस पार चला ....
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शालिनी रस्तौगी
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