Monday 28 December 2020

ज़िद

 

हरेक बात पर कर रहे जो ये ज़िद

कहाँ से हो सीखे अजी तुम ये ज़िद

 

वज़ह-सी वज़ह तो है कोई नहीं ,

बस ज़िदके लिए कर रहे हो ये  ज़िद

 

बुलाया, मनाया, जी समझाया बहुत

मगर बात बनने न देगी ये ज़िद|

 

जो हमदर्द बनकर के भटका रहे हो

सियासी है दाँव, है सियासी ये ज़िद|

 

इमारत ढहा जो न पाया कोई भी,

मकां प्यार का भी ढहा गई ये ज़िद|

 

न नश्तर, न तलवार- तीरों की चुभन है,

जिगर में चुभी जिस तरह से ये ज़िद|

 

जो ज़द में रहे तो बुरी क्यों  लगे,

क़यामत जो ज़द से गुज़र गई ये ज़िद|

 

 

 

 

Sunday 13 December 2020

इस दिल का सबर हो,

 हो नाम चाहे अब गुमनामी में बसर हो

गुज़र जाए हयात जैसे भी गुज़र हो।


क्या चाहिए जो यूँ भटकता फिरता है

किसी सूरत तो इस दिल का सबर हो,


कौन सराहेगा, सब आँख मूँद बैठे हैं

चल चलें जहाँ किसी को तो कदर हो।


बैठे थे कब से तो हाल तक न पूछा

अब चल दिए तो कहें जाते किधर हो।


कारनामे कई फ़क़त इस शौक में किए,

कि पहले पेज़ पे अपनी भी खबर हो

करें फ़रियाद किससे हम

 करें फ़रियाद किससे हम कि सुनवाई नहीं होती |

रक़म से अश्क की कर्ज़े की भरपाई नहीं होती|


यूँ करने को तो हंगामा खड़ा कर सकते हैं हम भी,

तेरी जैसी मेरी फितरत जा हरजाई नहीं होती |


सरे महफ़िल मुझे बदनाम जो तुम कर रहे हो यूँ ,

मेरी बदनामी से क्या तेरी रुसवाई नहीं होती |


न समझोगे नज़र की बात जो पहले समझ जाते,

जुबां से भी जिगर की बात समझाई नहीं होती|


दरक पड़ जाती है रिश्तों की उस दीवार में अक्सर,

यकीं के ग़ारे से जिसकी भी चिनावाई नहीं होती |


लगा इलज़ाम है उस पर ही उल्टा बेहयाई का,

नज़र जो बेशरम नज़रों से शरमाई नहीं होती|


नज़र के पेंच में दिल की न कट जाती पतंग ऐसे,

अदा से जो पलक तुमने यूँ झपकाई नहीं होती|


भरम रहता सभी को खुशमिज़ाजी का हमारी भी,

अगर हँसते हुए ये आँख भर आई नहीं होती|


ज़रा सा आसरा होता कि बेटा लौट आएगा,

नज़र माँ की बिछी रस्ते पे पथराई नहीं होती |

तो कुछ बात बने।

  ये निज़ाम सुधरे तो कुछ बात बने।

सूरते हाल बदले तो कुछ बात बने।


आदमी में आदमी सी फितरत भी

हो नुमाया सके तो कुछ बात बनें।


शोर में मुद्दा असल न दब जाए

बात मुद्दे की निकले तो कुछ बात बने।


या तो तुझसे या अपने आप से झगड़ा,

बंद हो जाए अगर तो कुछ बात बने।


देवियों को पूजते जिस देश में हम,

बेटी कोई न तड़पे तो कुछ बात बने।


मोमबत्तियाँ जलाने से भला क्या होगा,

सीने में मशाल जले तो कुछ बात बने।


चीख़ सुन मज़लूम की, हर जुल्म के एवज

आँख सबकी छलके तो कुछ बात बने।


बिकती रही बाज़ार में अबतक कलम

तलवार बन चमके तो कुछ बात बने।


बाद ए सबा जो तेरी याद ले आती है,

ये कभी उलटी भी बहे तो कुछ बात बने।

शालिनी रस्तौगी

गुरूग्राम


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