अदृश्य दीवार
हाँ , दिखती तो नहीं
आँखों के समक्ष
कोई बंदिश, कोई बाड़, कोई दीवार ,
साफ़-साफ़ दिखती है
आमंत्रण देती दुनिया
पास बुलाता उन्मुक्त खुला आकाश
पर कदम बढ़ाते ही
उड़ने को पंख फड़फड़ाते ही
टकरा जाते हैं पाँव
उलझने लगते हैं पंख
आखिर क्या है वो
जिससे टकरा लौट आते हैं
ख्वाब बार-बार
क्या खड़ी है मेरे
और उस दुनिया के बीच
कोई अदृश्य दीवार
~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है.अगर आपको ये पोस्ट पसंद आई ,तो अपनी कीमती राय कमेन्ट बॉक्स में जरुर दें.आपके मशवरों से मुझे बेहतर से बेहतर लिखने का हौंसला मिलता है.