आत्मनिर्भर औरतें
जिन्हें अहसास दिलाया जाता है
बार-बार , हर बार
जब घर के भीतर कभी
अपना सिर, अपनी आवाज़ उठाती हैं वो
किसी बात पर अपना विरोध जताती हैं वो
समझाया जाता है उन्हें
घुमा-फिराकर कही बातों में
कुछ स्पष्ट शब्दों में
कुछ इशारो में .....
देखो, इस चारदीवारी के भीतर
तुम नहीं हो खुदमुख्तार
राय अपनी भले ही रख लो
पर नहीं है तुम्हें .. फैसले लेने का अधिकार
तो अपना यह सशक्त आत्मनिर्भर औरत वाला लिबास
छोड़ आया करो ... घर की दहलीज़ के पास |
हाँ, यही हैं तयशुदा मापदंडों की बेड़ियों में बँधी
कुछ अपनी, कुछ परिवार , कुछ समाज की
अदृश्य बेड़ियों में जकड़ीं
दिखने, कहने , सुनने में आज़ाद
तथाकथित .. आत्मनिर्भर औरतें|
जो खींच लेती हैं पीछे खुद ही
उठे हुए विद्रोही कदम अपने
दबा लेती हैं
जिम्मेदारियों की सिल तले
विद्रोही स्वर
और बाँध लेती हैं अपने क़दमों में फिर
एक औरत के लिए तयशुदा मापदंडों की बेड़ियाँ ...
अपने कन्धों पर रखे आदर्शों के जुये को खींचतीं
जोतती हैं अपने ख़्वाबों की जमीन
और रोप देती हैं उसमें
कुछ सामजिक जिम्मेदारियाँ,
कुछ पारिवारिक दायित्व,
कुछ ख्वाब देखने की ग्लानि के बीज,
रात भर सींचती हैं उन्हें आँसुओं से,
गर्माहट देती हैं आहों से,
फिर अगली सुबह दायित्वों की लहलहाती फसल काटकर,
घर की औरत का पैरहन उतारकर ,
घर की दहलीज पे रखा ,
सशक्त आत्मनिर्भर औरत वाला लिबास ओढ़ ,
चल देती हैं काम पर ,
आत्मनिर्भर औरतें .....
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शालिनी रस्तौगी
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