मैं चल रही थी
साथ लिए
न जाने कितने भँवर
पैरों में
और कितने सैलाब
आँखों में
सर उठते थे मन में
न जाने कितने तूफां
हर बार
भीतर से उठती लहर कोई
बहा ले जाती मुझे
मुझसे ही दूर ... बहुत दूर
आशंकाओं के झंझावात तो
उठ रहे थे भीतर
सब कुछ उथल पुथल
सब बिखरा हुआ
वर्ना बाहर तो था सब
शांत , अडोल, अविचल
बस एक अकेली ... मैं
चल रही थी
अंतस का तूफ़ान कहाँ नज़र आता है किसी को...बहुत ख़ूबसूरत अहसास और उनकी सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteहार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ आदरणीय !
Deleteचना तो अकेले होता है ... दिल में तूफ़ान लिए ... और संभालना भी गोटा है खुद को ...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद दिगंबर जी !!
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