Friday, 20 February 2015

तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ.

तुम कहते हो मैं, प्रेम लिखूँ.
 जो जिया नहीं, जो गुना नहीं 
कैसे पल वो साकार लिखूँ.
तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ.

प्रेम की पीड़ा, प्रेम का हर्ष 
सर्वस्व समर्पण का उत्कर्ष 
अनाभूत उस भाव का प्रकर्ष 
बिन भोगे कैसे महसूस करूँ 

 तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ ..

यह वो अमृत जो चखा नहीं 
वो  विषपान  जो किया नहीं 
जब खिला नहीं, जब जला नहीं 
ये अंतर्मन तो क्या भाव धरूँ

तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ

वो प्रेम दीवानी मीरा के 
चिर वियोगिनी राधा के
हीर, शीरीं औ लैला के   
जैसी न  मैं स्वीकार करूँ 


तुम कहते हो मैं प्रेम लिखूँ

2 comments:

  1. प्रेम लिखकर व्यक्त करने की बात नहीं। बहुते ने लिखा। यह एक ऐसा विषय है जो सबको अच्छा लगता है। भाषा और शब्द की पकड के बाहर का है, पर जो बनता है उसे लिखना तो चाहिए।

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  2. सच है... बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति....

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