Monday, 23 February 2015

मैं मौन बाँचती हूँ


तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |
शब्दों की कैद में कब, मैं भाव बांधती हूँ |

शब्दों के दायरे में, भावों को बांधना क्यों?
नाप-तोल करके, ये प्रेम आंकना क्यों ?
तुम प्रेम-प्रेम कहते, मैं मन में झांकती हूँ |
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |

सागर की लहरों पर ज्यों बाँध का बनाना ,
आँधियों  को  जैसे,  हो  रास्ता  बताना ,
भावों पे शब्दों के, कब पाल तानती हूँ ?
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |


तुम आँखों से प्रेम कहना, आँखों से मैं सुनूँगी'
उस मूक प्रेम पल को, रह मूक ही गुनूँगी ,
मोती सा हरेक पल वो, आँचल में टाँकती हूँ|
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ 

शब्दों की स्याही जब, भाव पे जम जाए,
दिन से उजले भावों को, रात-सा बनाए,
दिन उजाला करने को मैं रात माँझती हूँ|
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ 

11 comments:

  1. अति सुन्दर पोस्ट ..........बधाई! हर एक पंक्तियाँ भावपूर्ण है और बहुत कुछ बयां कर रहीं है.

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    1. धन्यवाद प्रभात जी :)

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  2. सुन्दर रचना !

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    1. धन्यवाद मनोज कुमार जी !

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  3. मौन को पढ़ लेने की कला हर किसी को नहीं होती ... इसलिए वो ढूंढते हैं शब्द ...
    भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...

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    1. शुक्रिया दिगंबर नासवा जी !

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  4. वाकई मौन को क्‍या खूब बयां किया है आपने, धन्‍यवाद।

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    1. शुक्रिया कहकशां जी

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  5. प्रेम अपरिमित है और शब॒द सीमित
    Nice

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  6. वषों पहले ज्ञानपीठ अवार्ड से अंल्कर्ति कवि की रचना याद आ गयी

    मैने शब्द से पूछा कविता बनोगे
    शब्द ने उत्तर दिया मै कंहा रहूँगा


    आपको बहुत सुंदर अभिव्यक्ति की बधाई

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