शब्दों की कैद में कब, मैं भाव बांधती हूँ |
शब्दों के दायरे में, भावों को बांधना क्यों?
नाप-तोल करके, ये प्रेम आंकना क्यों ?
तुम प्रेम-प्रेम कहते, मैं मन में झांकती हूँ |
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |
सागर की लहरों पर ज्यों बाँध का बनाना ,
आँधियों को जैसे, हो रास्ता बताना ,
भावों पे शब्दों के, कब पाल तानती हूँ ?
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ |
तुम आँखों से प्रेम कहना, आँखों से मैं सुनूँगी'
उस मूक प्रेम पल को, रह मूक ही गुनूँगी ,
मोती सा हरेक पल वो, आँचल में टाँकती हूँ|
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ
शब्दों की स्याही जब, भाव पे जम जाए,
दिन से उजले भावों को, रात-सा बनाए,
दिन उजाला करने को मैं रात माँझती हूँ|
तुम शब्द ढूँढते हो, मैं मौन बाँचती हूँ
अति सुन्दर पोस्ट ..........बधाई! हर एक पंक्तियाँ भावपूर्ण है और बहुत कुछ बयां कर रहीं है.
ReplyDeleteधन्यवाद प्रभात जी :)
Deleteसुन्दर रचना !
ReplyDeleteधन्यवाद मनोज कुमार जी !
Deleteमौन को पढ़ लेने की कला हर किसी को नहीं होती ... इसलिए वो ढूंढते हैं शब्द ...
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति ...
शुक्रिया दिगंबर नासवा जी !
Deleteवाकई मौन को क्या खूब बयां किया है आपने, धन्यवाद।
ReplyDeleteशुक्रिया कहकशां जी
Deleteप्रेम अपरिमित है और शब॒द सीमित
ReplyDeleteNice
Kya khoob likha h aapne
ReplyDeleteवषों पहले ज्ञानपीठ अवार्ड से अंल्कर्ति कवि की रचना याद आ गयी
ReplyDeleteमैने शब्द से पूछा कविता बनोगे
शब्द ने उत्तर दिया मै कंहा रहूँगा
आपको बहुत सुंदर अभिव्यक्ति की बधाई