Saturday 17 August 2013

विरहा ( सवैया- दुर्मिल)


विरहा  अगनी  तन  ताप  चढ़े, झुलसे  जियरा  हर सांस जले|

जल से जल जाय जिया जब री, हिय की अगनी कुछ और बले|

कजरा  ठहरे  छिन  नैन  नहीं, रहती  अश्रुधार  कपोल ढले|

दिन के चढ़ते इक आस बंधे, दिन बीतत है अरु आस टले ||

19 comments:

  1. बहुत सुंदर सवैया....बहुत खूब शालिनी जी।

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  2. वाह बहुत बढ़िया |

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  3. बहुत सुन्दर शालिनी.....इतने कम शब्दों में सारी व्यथा कह डाली

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  4. विरह के भाव को सार्थक करते ... सुन्दर मन को छूते हुए सवैया ...

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  5. विरहा अगनी तन ताप चढ़े झुलसे जियरा हर सांस जले
    वाह वाह वाह !

    आदरणीया शालिनी जी
    सुंदर छंद के लिए बहुत बहुत बधाई !


    हार्दिक मंगलकामनाओं सहित...
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....बधाई...

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  7. हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} के शुभारंभ पर आप को आमंत्रित किया जाता है। कृपया पधारें आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा |

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  8. waah dekhan men chhotan lage ....par arth ke ucchtam shikhar par pahunchaye ....

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  9. आदरणीया अपकी यह प्रभावशाली प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक की गयी है।
    कृपया http://nirjhar.times.blogspot.in पर पधारें,आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  10. विरह की विपरीत और पीडित स्थितियों सार्थक वर्णन। बिहारी के विरह वर्णन के नजदिक पहुंचता है।

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  11. वाह, बहुत दिन बाद सवैय्या पढ़ने को मिला

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है.अगर आपको ये पोस्ट पसंद आई ,तो अपनी कीमती राय कमेन्ट बॉक्स में जरुर दें.आपके मशवरों से मुझे बेहतर से बेहतर लिखने का हौंसला मिलता है.

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