है कोई नहीं संताप
फिर क्यों
विकल प्राण मेरे ..
किस अग्नि में जले आत्मा
जब तुम हो प्राण मेरे
आच्छादन बन अस्तित्व तुम्हारा
ढाँप रहा मुझ विरहन को
फिर क्यों और कैसी व्याकुलता
मन सुलझा दे इस उलझन को
स्थिरता ऊपर पर भीतर
उथल पुथल प्राण मेरे
है छद्म अरे यह विरह और
है भ्रम ये दूरी प्रियतम से
मन की आँखों को खोल ज़रा
फिर हर पल उनसे संगम है
समझाती कितना इनको पर
जाते क्यों न बहल प्राण मेरे
बिरहन की मनस्थिति को प्रकट करती भावप्रवण, सुंदर रचना।
ReplyDeleteआपकी सर्वोत्तम रचना को हमने गुरुवार, ६ जून, २०१३ की हलचल - अनमोल वचन पर लिंक कर स्थान दिया है | आप भी आमंत्रित हैं | पधारें और वीरवार की हलचल का आनंद उठायें | हमारी हलचल की गरिमा बढ़ाएं | आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...भावप्रबल रचना .
ReplyDeleteभावपूर्ण सुंदर रचना ,,,
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने
ReplyDeleteप्रियतम से विरह कब होता ही है
बस मन की छद्म अवस्था है यह
साभार!
बहुत सही कहा आपने
ReplyDeleteप्रियतम से विरह कब होता ही है
बस मन की छद्म अवस्था है यह
साभार!
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteक्या बात
मन की व्यथा कथा को मार्मिकता से उकेरा है
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
सादर
आग्रह है
गुलमोहर------
ati sundar
ReplyDeleteवाह!बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteअनुपम, अद़भुद, अतुलनीय, अद्वितीय, निपुण, दक्ष, बढ़िया रचना
ReplyDeleteहिन्दी तकनीकी क्षेत्र की रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारियॉ प्राप्त करने के लिये एक बार अवश्य पधारें
टिप्पणी के रूप में मार्गदर्शन प्रदान करने के साथ साथ पर अनुसरण कर अनुग्रहित करें
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bhawon se bhari..
ReplyDeleteapreetam kriti :)
मन की विकलता ... प्रेम को आतुर है ...
ReplyDeleteसुन्दर भावमय ...