गति और ठहराव
1.
गति का वरदान तुम्हें मैं,
स्थिरता का शाप झेलती
भँवर पड़े तेरे पैरों में
मैं ठहराव की आस देखती
मैं जड़ तुम थे जंगम
कैसे संभव होता संगम
या मुझमें उद्भव हो गति
या तुझमें ठहराव देखती
2.
नदी थी मैं
मिला था
गति का वरदान मुझे
नियति मेरी
किनारे से तुम
बस वहीँ रुके रहे
मै बढ़ी, बही, छलकी, मचली
साथ तुम्हे ले चलने को
व्याकुल था मन
पर
तुम न चले
चलना नियति न थी तुम्हारी
पर साथ मेरा देने को
कर लिया तुमने अपना
विस्तार अनंत
जहाँ तक तुम चली
साथ देते रहे मेरा
पर
स्थिर बन
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(1-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
वाह आदरणीया शालिनी जी वाह बहुत ही सुन्दर लाजवाब हृदयस्पर्शी रचना क्या कहने ढेरों बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteबहुत खूब उम्दा प्रस्तुति,,
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ReplyDeleteप्रेम का महीन अहसास कराती
सुंदर रचना
बहुत खूब
बधाई
आग्रह हैं पढ़े,मेरे ब्लॉग का अनुसरण करें
तपती गरमी जेठ मास में---
http://jyoti-khare.blogspot.in
आपकी यह रचना कल शनिवार (01 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteव्यथा , सुन्दर रचना
ReplyDeleteअति सुन्दर काव्य रचना.
ReplyDeleteबहुत सुंदर .रुक जाना नहीं .
ReplyDeletevytha katha ka sundar chitran
ReplyDeleteअच्छी रचना, बहुत सुंदर
ReplyDeleteक्या कहने
नोट : आमतौर पर मैं अपने लेख पढ़ने के लिए आग्रह नहीं करता हूं, लेकिन आज इसलिए कर रहा हूं, ये बात आपको जाननी चाहिए। मेरे दूसरे ब्लाग TV स्टेशन पर देखिए । धोनी पर क्यों खामोश है मीडिया !
लिंक: http://tvstationlive.blogspot.in/2013/06/blog-post.html?showComment=1370150129478#c4868065043474768765
लाजवाब मनभावन प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण गहन अभिव्यक्ति...दोनों ही रचनाएँ दिल को छू गयीं!
ReplyDeleteनिर्विकार भाव से कोई कोई ही साथ दे सकता है ...
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ...
महत्वपूर्ण यह है कि साथ तो दिया। नदी सा ही प्रवाह लिए सुंदर कविता।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ।
ReplyDeletesunder, bhavpurn rachana.
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