ज़ख्म जुल्मों के तेरे अब, ये दिल न झेल पाएगा
जुस्तजू में गुजारी जीस्त, जुस्तजू में फ़ना हो जाएगा
जुर्रत आजमाना चाहता है तू, पेशकदमी-ए-इश्क में
तू ज़रा हद तो खींच के देख, उस पार ही हमें पाएगा.
ज़रखरीद नहीं तेरे हम, कि हिकारत हमसे तू बरते
,
लौटेंगे अब न कभी जो, नरमी से भी बुलाएगा.
जायज़ नहीं हमपे तेरा, यूँ जोर-ए-हक़ जताना
जोर आजमाइश से कहाँ दिलों को जीत पाएगा .
जुस्तजू में गुजारी जीस्त, जुस्तजू में फ़ना हो जाएगा
जुर्रत आजमाना चाहता है तू, पेशकदमी-ए-इश्क में
तू ज़रा हद तो खींच के देख, उस पार ही हमें पाएगा.
ज़रखरीद नहीं तेरे हम, कि हिकारत हमसे तू बरते
,
लौटेंगे अब न कभी जो, नरमी से भी बुलाएगा.
जायज़ नहीं हमपे तेरा, यूँ जोर-ए-हक़ जताना
जोर आजमाइश से कहाँ दिलों को जीत पाएगा .
शालिनी जी ग़ज़ल बहुत ही बढ़िया है लेकिन उर्दू में हाथ तंग है तो अच्छा होता शब्दों के अर्थ मिल जाते नीचे तो ... अगर आपको कोई परेशानी न हो तो ....
ReplyDeleteसादर आभार ....
kya baat
ReplyDeleteबढ़िया.........
ReplyDeleteज/ज़ के ढेर सारे लफ़्ज़ों से सामना हुआ....
:-)
सस्नेह
अनु
बहुत उम्दा,लाजबाब गजल के लिए बधाई ,, शालिनी जी
ReplyDeleteRecent post: ओ प्यारी लली,
उर्दू लफ़्ज़ों का शानदार प्रयोग.........दूसरा शेर अपने मानी में ज़बरदस्त ।
ReplyDeletekhubsurat gajal :)
ReplyDeletebehtareen..
जबरदस्त है सभी शेर ... अलग अंदाज़ है कहाँ का सभी शेरों में ...
ReplyDeleteबहोत खूब शालिनी ...आखरी शेर ख़ास तौर पर पसंद आया
ReplyDeleteबहुत सुंदर ग़ज़ल ।
ReplyDeleteसुंदर भावों की सशक्त प्रस्तुति
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