Saturday, 14 December 2013

शब्द ....

शब्द ....
कितने बेमानी हो जाते हैं 
कभी - कभी 
अपने ही मुख से निकली 
इन अपरिचित ध्वनियाँ
किसी अतल कूप में गूँजती 
अस्पष्ट आवाजों सी 
भ्रमित से हम 
करते प्रयास 
कुछ अर्थ ढूँढने का 
कुछ खुद को समझने का
खुद को विश्वास दिलाने का
पर
हर बार होते साबित झूठे
अपनी ही बातों की
सत्यता प्रमाणित करने को
घुमती दृष्टि चहुँ ओर
पर विरोध के स्वर तो कहीं
उठा रहे होते सर
मन के भीतर
अंतस में कोई करता अट्टहास
धिक्कारता बार- बार
आत्म ग्लानी से भरे हम
बस बोलते जाते हैं
बिना आत्मा वाले
बेमतलब से
कुछ शब्द

13 comments:

  1. सच है कई बार हम खुद हतप्रभ रह जाते हैं अपने ही बोले शब्दों पर क्योंकि जबरन बोलना पड़ता है बिना आत्मा वाले शब्द... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. बधाई.

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  2. मनुष्य के लिए मिली अद्भुत शक्ति में भाषा प्रधान है और भाषा शब्दों से बनती है। शब्दों से कई लोग खेलते हैं, खिलवाड करते हैं। लेखक के लिए तो शब्द अमूल्य निधि बन आते हैं। पर असल बात शब्द ही मनुष्य और लेखकों से खेला करते हैं। बेमतलब से कुछ शब्द भी मतलब की बात करते हैं। सक्षिप्त पर सार्थक कविता।

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  3. गहन भाव लिए बेहतरीन रचना...

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  4. सही कहा आपने शब्द अक्सर बेमानी हो जाते हैं |

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  5. कल 18/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  6. शब्द अनवरत नाद हैं ... अभिव्यक्ति की पहचान हैं ...

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  7. शानदार प्रस्तुति |

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  8. बहुत सार्थक सुन्दर ......

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  9. बहुत सुन्दर शब्द तो स्वयं ब्रह्म है , लेकिन अगर शब्द आत्मा से पूरित न हो तो उनका कोई अर्थ नहीं .. सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  10. हर शब्द के अलग अर्थ :) सुंदर !!

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  11. सुंदर भाव..................

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